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________________ उपोद्घातः तिरियं भागं जाणइ।" अष्टमः-पश्यकशक्तविकास:----'अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा।'३ 'से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे । नवमः-प्रतिपक्षभावना-'लोभं अलोभेण दुगंछ- माणे।" दशमः—अकर्मसाधना-'एस अकम्मे जाणति- पासति । एकादश:---अशौचानुप्रेक्षा-'जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहिं तहा अंतो।" 'अंतो अंतो पूतिदेहतराणि पासति पुढोवि सवंताई।'' द्वादशः- अनन्यदशनम्-'ज अणण्णदसा, स अणण्णा- रामे, जे अणण्णारामे, से अणण्णदंसी।" त्रयोदशः-आतंकदर्शनम्-'आयंकदंसी ण करेति पावं।" चतुर्दश:-निष्कर्मदर्शनम्-'पलिच्छिदिया णं णिक्क- म्मदंसी। ऊर्ध्वभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता है।' आठवां उपाय है-द्रष्टाशक्ति का विकास-'अध्यात्म तत्त्वदर्शी पुरुष वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करे-जैसे अध्यात्म के तत्त्व को नहीं जानने वाला करता है, वैसे न करे ।' 'केवल वही अपने पथ पर आरूढ़ रहता है जो लोक को भिन्न दृष्टि से देखता है लोक-प्रवाह की दृष्टि से नहीं देखता।' नौवां उपाय है-प्रतिपक्षभावना का विकास-'अलोभ से लोभ को पराजित कर देना।' दसवां उपाय है-अकर्म साधना-'वह अकर्म होकर जानता देखता है।' ग्यारहवां उपाय है---अशौच-अनुप्रेक्षा-'यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है और जैसा बाहर है वैसा भीतर है।' 'इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर पहुंच कर शरीर-धातुओं को देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है।' बारहवां उपाय है-अनन्यदर्शन--'जो अनन्य को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है और जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है।' तेरहवां उपाय है-आतंकदर्शन-हिंसा में आतंक देखनेवाला पुरुष परम को जानकर पाप नहीं करता।' चौदहवां उपाय है-निष्कर्मदर्शन--'संयम और तप के द्वारा राग-द्वेष को छिन्न कर पुरुष निष्कामदर्शी---- आत्मदर्शी हो जाता है।' पन्द्रहवां उपाय है-परमदर्शन-तीन विद्याओं का ज्ञाता परम को जानता है।' 'लोक में परम को देखना"।' सोलहवां उपाय है आत्म-समाधि-'जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला देती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला तथा अनासक्त पुरुष कर्म-शरीर को प्रकंपित, कृश और जीर्ण कर देता है।' सतरहवां उपाय है-निरुद्ध-आयुष्क-संप्रेक्षा---'यह आयु सीमित है, इसकी संप्रेक्षा कर।' अठारहवां उपाय है-प्रकंपन-दर्शन-'तू देख, यह लोक चारों ओर प्रकंपित हो रहा है।' ११. वही, ३३३३ । १२. वही, ३१३८ । १३. वही, ४।३३। १४. वही, ४१३४॥ १५. वही, ४।३७ । पञ्चदशः-परमदर्शनम्-'तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा । 'लोयंसी परमदंसी।१२ षोडश:-आत्मसमाधि:--'जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्व वाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिए अणिहे।३ सप्तदशः-निरुद्धायुष्कसंप्रेक्षा-'इमं णिरुद्धाउयं संपेहाए ।१४ अष्टादश:-प्रकम्पनदर्शनम्--'लोयं च पास विप्फंद- माणं ।'५ १. आयारो, २।१२५॥ ६. वही, २।१२९ । २. वही, २।११८ । ७. वही, २।१३०। ३. वही, ५५०॥ ८. वही, २०१७३। ४. वही, २॥३६॥ ९. वही, ३३३ । ५. वही, २।३७ । १०. वही, ३।३५ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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