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________________ ३४६ आचारांगभाष्यम् १११. जस्सिमे आरंभा सव्वतो सव्वत्ताए सुपरिणाया भवंति, जेसिमे लसिणो णो परिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं च मायं च लोमं च । सं०-यस्येमे आरंभाः सर्वतः सर्वात्मना सुपरिज्ञाता भवंति येषु इमे लूषिणो नो परिवित्रसन्ति, स वान्ता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च। जिन आरम्भों में ये धुतों के विराधक मनुष्य उद्विग्न नहीं होते, उनको सब प्रकार से, सर्वात्मना छोड़ देने वाला मुनि क्रोध, मान, माया और लोम का वमन कर डालता है। भाष्यम् १११-येषु आरम्भेषु इमे लूषिणः-स्वजन- जिन आरम्भों में ये लूषक-स्वजन-परित्याग आदि पांच धुतों परित्यागादिधुतानां विराधका नरा नो परिवित्रसन्ति के विराधक मनुष्य उद्विग्न नहीं होते, वे ये आरंभ जिसके सब प्रकार -उद्विजन्ते ते इमे आरम्भा यस्य सर्वतः सर्वात्मना से, सर्वात्मना सुपरिज्ञात होते हैं, वह मुनि क्रोध, मान, माया और सपरिज्ञाता भवन्ति स चतुर्विधस्य क्रोधादिकषायस्य लोभ-इस चतुर्विध कषाय का वमन कर डालता है। इन आरंभ वान्ता भवति । आरम्भादिषु उद्वेगं अननुभवन्तो लूषिणो आदि में उद्वेग का अनुभव न करने वाले लूषक-धुतविराधक मनुष्य नरा क्रोधादिकं परित्यक्तुं न क्षमन्ते । आरम्भैरनु बद्धाः क्रोध आदि को छोड़ने में समर्थ नहीं होते। क्रोध आदि चारों कषाय क्रोधादिकषायाः। कः क्रोधादिकं करोति ? योऽस्ति आरंभ से अनुबद्ध हैं। क्रोध आदि कौन करता है ? जो आरंभ में आरम्भनिमग्नः । कश्च क्रोधादिकं उपशमयति ?योऽस्ति निमग्न होता है वही क्रोध आदि करता है। क्रोध आदि का उपशम आरम्भपरित्यागी। कौन करता है ? जो आरंभ का परित्याग करता है वही क्रोध आदि का उपशम करता है। ११२. एस तुट्टे वियाहिते त्ति बेमि। सं०-एष 'तुट्टे' व्याहृतः इति ब्रवीमि । वह त्रोटक कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ११२-येन स्वजनादिसंबंधा विधताः, जिस व्यक्ति ने स्वजन आदि के संबंधों को छोड दिया है, आस्रवनिरोधः कृतः, पूर्वोपचितं च कर्म क्षपितं स एष आस्रव का निरोध कर लिया है, पूर्व उपचित कर्मों का क्षय कर डाला त्रोटक इति व्याहृतः इति ब्रवीमि । है, वह त्रोटक (तोड़ने वाला) कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। ११३. कायस्स विओवाए, एस संगामसोसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुणी, अवि हम्ममाणे फलगावयट्टि, कालोवणीते कंखेज्ज कालं, जाव सरीरभेउ ।-त्ति बेमि । सं०-कायस्य व्यवपात: एष संग्रामशीर्ष व्याहृतः । स खलु पारंगमः मुनिः अपि हन्यमानः फलकावतष्टी, कालोपनीत: कांक्षेत् कालं यावत् शरीरभेदः ।-- इति ब्रवीमि । मृत्यु के समय होने वाला शरीर-पात संग्रामशीर्ष (अग्रिममोर्चा) कहलाता है। जो मुनि उसमें पराजित नहीं होता और परीषहों से आहत होने पर खिन्न नहीं होता, वह पारगामी होता है। बाह्य और आन्तरिक तप के द्वारा फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ वह मुनि खिन्न न बने। मृत्यु के निकट आने पर जब तक शरीर का वियोग न हो, तब तक काल की प्रतीक्षा करे-मृत्यु की आशंसा न करे। - ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ११३-जीवनस्य कषोपलोऽस्ति मृत्युः । तस्य जीवन की कसौटी है-मृत्यु । उस क्षण में साधक शांतचित क्षणे साधकेन शान्तचित्तेन भाव्यमिति निदिशति रहे, यह सूत्रकार का निर्देश है। यह शरीरपात संग्रामशीर्ष (अग्रिम सुत्रकारः । एष कायस्य व्यवपात: संग्रामशीर्ष विद्यते । मोर्चा) कहलाता है। जैसे अग्रिममोर्चे पर विजयी योद्धा अपने १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४२ : लूसंतीति लूसगा, पंचगस्स वा लूसगा भंजगा विराहगा एगट्ठा । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३४ : लूषिणो लूषणशीलाः हिसकाः । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४२ : सम्वतो इति खित्तं गहियं गामे वा जाव सवलोए। ३. वही, पृष्ठ २४२ : सम्वत्ता इति सव्वअप्पत्तेणं भावे गहिते कालोवि तत्थेव । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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