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अ० २. लोकविचय, उ० २,३. सूत्र ४२-४६
दण्डसमादानस्य
भाष्यम् ४६ पूर्ववर्तिसूत्रत्रये प्रयोजनानि सूचितानि । प्रस्तुतसूत्रे दण्डसमारम्भं कृतकारितानुमतिभिः न कुर्याद् इति निर्देशः अयं निर्देश मेधाविनं लक्ष्यीकृत्य कृतः । यस्य मेधा अहिंसायाः मूल्यांकन कर्तुं क्षमा तस्मै एष निर्देश: संगच्छते ।
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४७. एस मग्गे आरिएहि पवेइए।
सं०- एष मार्ग: आर्यः प्रवेदितः ।
यह मार्ग आर्यों द्वारा प्रवेदित है।
सं०
भाष्यम् ४७ -- एष अलोभस्य अपरिग्रहस्य ममत्वमुक्तेर्वा मार्गः आः प्रवेदितः । आर्य' इति आचार्यः । ४८. हेल्थ कुसले गोवलिपिज्जासि । ति बेमि - यथात्र कुशलः नोपलिम्पेत् । इति ब्रवीमि जिससे कुशल पुरुष इसमें लिप्त न हो। –
ऐसा मैं कहता हूं ।
इतिहेतुमुद्दिश्य
भाष्यम् ४० एष मार्गः आयें आर्यों ने इस मार्ग का उपदेश इसलिए दिया है जिससे कि पदिष्टः यथा कुशलः अस्मिन् परिग्रहे नोपलिप्तो कुशल पुरुष इस परिग्रह में लिप्त न हो। पेत् ।
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पूर्ववर्ती तीन सूत्रों में दण्ड समादान के प्रयोजन सूचित किए प्रस्तुत सूत्र में यह निर्देश है कि पुरुष कृत, कारित और इन तीनों से हिंसा न करे यह निमेधावी को लक्ष्य कर किया गया है। जिस व्यक्ति की मेधा अहिंसा का मूल्यांकन करने में सक्षम है, उसके लिए यह निर्देश संगत लगता है ।
गए हैं। अनुमति
भाष्यम् ४९ - अर्थसंग्रहः पदार्थसंग्रहश्च प्रत्यक्ष परिग्रहः । किन्तु सूक्ष्मेक्षिकया सम्मानवाञ्छापि परिग्रह एव । तस्य विमुक्तये विचयसूत्रमिदम् असौ संसारी : अनेकवारं उच्चगोत्रो जातः अनेकवारञ्च नीच - पुरुष : गोत्रो जातः । अनेन पुरुषेण अनेकवार उच्चत्वं नीच त्वञ्च प्राप्तम् । तेनासी नो हीनः न चातिरिक्त अथवा उच्चनीचगोत्रयोः नास्ति हीनमतिरिक्तं वा । तेन उच्चगोत्रं न स्पृहणीयम् ।
तइओ उद्देसो तीसरा उद्देशक
४६. से असई उच्चागोए असई णीयागोए । णो हीणे, णो अइरिते, णो पीहए।
सं०-- सः असकृद् उच्चगोत्रः, असकृद् नीचगोत्रः । नो हीनः, नो अतिरिक्तः, नो स्पृहयेत् ।
उत्कर्ष प्राप्तः,
१. प्रस्तुतागमस्य रचनाकाले आर्यशब्दः अनार्यशब्दश्च अपकर्षं गतः ।
२. आचारांग वृति पत्र १०७ नोऽपीहए— अपि सम्भावने
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अलोभ, अपरिग्रह अथवा ममत्वमुक्ति का यह मार्ग आर्यों द्वारा प्रवेदित है । आर्य का अर्थ है - आचार्य |
वह पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र और अनेक बार नीचगोत्र का अनुभव कर चुका है। अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त । इसलिए वह उच्चगोत्र की हम करे।
अर्थ का संग्रह और पदार्थ का संग्रह प्रत्यक्ष परिग्रह है, किंतु सूक्ष्मदृष्टि से सम्मान की वाञ्छा भी परिग्रह ही है । उसकी विमुक्ति के लिए यह विचयसूत्र है - यह संसारी पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र वाला बना है और अनेक बार नीचगोत्र वाला । यह पुरुष अनेक बार उच्चता और नीचता को प्राप्त हुआ
है
इसलिए यह न हीन है और न अतिरिक्त अथवा उच्च और नीच गोत्र - दोनों में कोई भी हीन या अतिरिक्त नहीं है। इसलिए उच्चगोत्र की स्पृहा नहीं करनी चाहिए ।
स च भिन्नक्रमो जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपि 'नो ईहेतापि' नाभिलवेदपि अथवा नो स्पृहयेत्-नावकांक्षेदिति ।
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