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आचारांगभाष्यम्
भाष्यम् ७४-८४ --एतानि सूत्राणि पूर्ववत् (२०-३०) पूर्ववत् देखें-सूत्र २०-३० । ज्ञातव्यानि। ८५. से बेमि-संति पाणा पुढवि-णिस्सिया, तण-णिस्सिया, पत्त-णिस्सिया, कट्ट-णिस्सिया, गोमय-णिस्सिया, कयवर
णिस्सिया। संति संपातिमा पाणा, आहच्च संपयंति य। अणि च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जति । जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जति । जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उहायंति। सं०-तद् ब्रवीमि--सन्ति प्राणाः पृथिवीनिश्रिताः, तृणनिश्रिताः, पत्रनिश्रिताः, काष्ठनिश्रिताः, गोमयनिश्रिताः, कचवरनिश्रिताः । संति संपातिमाः प्राणाः, आहत्य संपतन्ति च । अग्नि च खलु स्पृष्टाः, एके संघातमापद्यन्ते । ये तत्र संघातमापद्यन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते । ये तत्र पर्यापद्यन्ते, ते तत्र अवद्रान्ति । मैं कहता हूं-पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कचरे के आश्रय में प्राणी रहते हैं। संपातिम (उड़ने वाले) प्राणी भी होते हैं। वे ऊपर से आकर नीचे गिर जाते हैं। कुछ प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं। जो प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं वे उसकी ऊष्मा से वहां मूच्छित हो जाते हैं। जो उसकी ऊष्मा से मूच्छित हो जाते हैं वे वहां मर जाते हैं।
भाष्यम ८५-अस्मिन् जगत्यनेके प्राणिनः सन्ति इस जगत् में अनेक प्रकार के प्राणी हैं। वे विभिन्न आश्रयपृथ्वीनिश्रिताः---त्रसाः स्थावराश्च । तत्र त्रसा:-कुन्थु- स्थानों में रहते हैं । पृथ्वी के आश्रय में त्रस और स्थावर-दोनों प्रकार पिपीलिकादयः सर्पमण्डू कादयश्च । स्थावरा:-वृक्षगुल्म- के प्राणी रहते हैंलतातृणादयः । तृण-पत्रनिश्रिताः-पतङ्गेलिकादयः। त्रस—कुंथु, पिपीलिका, सर्प, मेंढक भादि । काष्ठनिश्रिताः-घुणपिपीलिकाण्डादयः। गोमय- स्थावर-वृक्ष, गुल्म, लता, तृण आदि । निश्रिताः--कुंथुपनकादयः। कचवरनिश्रिता:-कृमि- तृण-पत्र के आश्रय में रहने वाले प्राणी-पतंगा, इल्ली आदि । कीटपतंगादयः। संपातिमा:-मक्षिकाभ्रमरपतंगमशक- काष्ठ के आश्रय में रहने वाले प्राणी-घुण, चींटी, अंडे आदि । पक्षिवातादयः।
गोबर के आश्रय में रहने वाले प्राणी-कुंथ, फफुन्दी आदि । कचरे के आश्रय में रहने वाले प्राणी-कृमि, कीट, पतंगा आदि ।
संपातिम प्राणी-मक्खी, भ्रमर, पतंगा, मच्छर, पक्षी, वायु
मादि। ते आहत्य-आगत्याग्नौ संपतन्ति । तस्य स्पर्श वे सभी प्रकार के प्राणी आकर अग्नि में गिरते हैं । उसके स्पर्श प्राप्य एके जीवाः संघातमापद्यन्ते-गात्रसंकोचनं को पाकर कुछ जीव संघात को प्राप्त हो जाते हैं उनका शरीर प्राप्नुवन्ति । ये संघातमापद्यन्ते ते पर्यापद्यन्ते-मूच्छिता सिकुड़ जाता है। जो संघात को प्राप्त होते हैं, वे मूच्छित हो जाते हैं। भवन्ति । ते मूच्छिताः सन्तः अवद्रान्ति-म्रियन्ते। वे मूच्छित होकर मर जाते हैं। ८६. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवति ।
सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो अग्निकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ (प्रयोग) करता है, वह इन आरम्भों-तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता। ७. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति । सं.---अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । जो अग्निकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों से मुक्त हो जाता है ।
परिणाय मेहावी नेव सयं अगणि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवण्णेहि अगणि-सत्थं समारंभावेज्जा, अगणि-सत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणजाणेज्जा।
१. आचारांग वृत्ति, पत्र ५० : पत्रतृणधूलिसमुदायः कचवरः।
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