SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १३५ १४१ भाष्यम् १२७ – यस्व कामे तदुपायभूते वर्षे च महती श्रद्धा विद्यते स महाथद्धी पुरुषः अमरायते मरणा शंकामतिक्रान्त एव आचरति ।' 3 १३८. अट्टमेतं पेहाए । सं० आर्तमेतं प्रेक्ष्य । तू देख वह पीड़ित है। " भाग्यम् १३० यः कामस्य तदुपायभूतस्य अर्थस्य च चिन्तया व्याकुलः स आर्त :- पीडितो दु:खी वा विद्यते इति प्रेक्ष्य त्वं जानीहि - 'कामं अर्थं च दुःखस्य उपादानम् ।' १३. अपरिण्णाए कंदति । सं० - अपरिज्ञाय ऋन्दति । अर्थ-संग्रह का त्याग नहीं करने वाला क्रन्दन करता है । भाष्यम् १३९ कामं अर्थ तयोर्विपाकांश्च अपरिज्ञाय पुरुषः क्रन्दति - अप्राप्ते कांक्षया क्रन्दति, नष्टे च शोकेन ऋन्दति । १४०. से तं जाणह जमहं बेमि । सं० - अथ तद् जानीत यदहं ब्रवीमि । तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूं। भाग्यम् १४० - अथ तद् जानीत यदहं ब्रवीमि इति वदन् सूत्रकारः कामचिकित्सा प्रति शिष्यस्य ध्यानं आकर्षति । १४१. तेइच्छं पंडिते पवयमाणे । सं० चिकित्सा पण्डित प्रवदन् चिकित्सा-कुशल चिकित्सा में प्रवृत्त हो रहा है। १. राजगृह में मगधसेना नाम की गणिका थी। वहां धन नाम का सार्थवाह आया । वह बहुत बड़ा धनी था। उसके रूप, यौवन और धन से आकृष्ट होकर मगधसेना उसके पास गयी। वह आय और व्यय का लेखा करने में तन्मय हो रहा था । उसने मगधसेना को देखा तक नहीं । उसके अहं को चोट लगी । वह बहुत उदास हो गयी । मगध सम्राट् जरासन्ध ने पूछा- 'तुम उदास क्यों हो ? किसके पास बैठने से तुम पर उदासी छा गयी ।" Jain Education International १३५ जिस व्यक्ति की 'काम' — इंद्रिय विषयों तथा उनके साधनभूत धन में महान था होती है, वह महाबद्धी पुरुष 'अमर' की भांति आचरण करता है । वह इस प्रकार से आचरण करता है मानो उसे मरने की आशंका ही नहीं है। जो काम तथा उसके साधन भूत अर्थ की चिन्ता से व्याकुल होता है यह आतं होता है, पीड़ित अथवा दुःखी होता है यह देखकर तुम जानो, काम और अर्थ - ये दोनों दुःख के उपादान कारण हैं । काम और अर्थ तथा उनके परिणामों को नहीं जानता हुआ पुरुष क्रन्दन करता है। उसके दो कारण है- (१) उनकी प्राप्ति न होने पर आकांक्षा से क्रंदन करता है तथा (२) उनके नष्ट हो जाने पर शोक से ऋन्दन करता है । इसलिए तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ यह कहते हुए सूत्रकार काम-चिकित्सा के प्रति शिष्य का ध्यान आकृष्ट करते हैं। गणिका ने कहा- 'अमर के पास बैठने से ।' 'अमर कौन ?' सम्राट् ने पूछा । गणिका ने कहा- 'धन सार्थवाह जिसे धन की ही चिन्ता है। उसे मेरी उपस्थिति का भी बोध नहीं हुआ, तब मरने का बोध कैसे होता होगा ?" यह सही है कि अर्थ-लोलुप व्यक्ति मृत्यु को नहीं देखता और जो मृत्यु को देखता है, वह अर्थ- सोलुप नहीं हो सकता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy