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________________ १३४ आचारांगभाष्यम् इसलिए कहा है-पुरुष अपने ही कृत कार्यों से मूढ होकर कामसामग्री प्राप्त करने के लिए पुनः ललचाता है। अत एव उक्तमिदम्-कृतेन मूढः पुरुषः पुनस्तं लोभं करोति।' १३५. वेरं वड्ढेति अप्पणो। सं०-वरं वर्धयति आत्मनः । वह अपना वर बढाता है। भाष्यम् १३५-लोभस्य अपायान् दर्शयति सूत्रकारः। सूत्रकार लोभ के दोषों का दिग्दर्शन कराते हैं-कामात्तं पुरुष कामातः पुरुषः आत्मनः वैरं वर्द्धयति । अभिमानपूर्वकः अपने वैर को बढ़ाता है। अभिमानपूर्वक क्रोध करना वैर है। वैर का अमर्षःवरम । वरम्-दुःखं कर्म वा। वर्द्धयति-तद् वैरं अर्थ दुःख या कर्म भी है। बढाने का अर्थ है-वैर की परम्परा को अनन्तं करोति। अनन्त करना। १३६. जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चेव पडिवहणयाए। सं०-यदिदं परिकथ्यते अस्य चैव परिबृहणाय। यह जो कहा जा रहा है-'काम का आसेवन तृप्ति देता है' यह ययार्थ नहीं है। वह अतृप्ति को बढाने वाला ही होता है। माष्यम् १३६यद् इदं परिकथ्यते--'कडेण मूढे जो यह कहा जाता है कि 'पुरुष अपने ही कृत कार्यों से मूढ होकर प्रणोतं करेइ लोभ', तत् अस्य कामस्य एव प्रतिबंहणाय पुनः ललचाता है, अर्थात् काम-सामग्री पाने की लालसा 'काम' को ही भवति । तात्पर्यमिदम्-दुःखनिवृत्तये काममासेवते, किन्तु परिपुष्ट करती है। इसका तात्पर्य यह है-मनुष्य दुःख की निवृत्ति के मृढो नहि जानाति अनेन दुःखस्य तद्हेतुभूतस्य कामस्य लिए 'काम' का आसेवन करता है, किंतु वह मूढ़ मनुष्य नहीं जानता कि च पुष्टिर्जायते । भणितं च इससे दुःख और उसके हेतुभूत काम-दोनों का पोषण होता है । कहा है'दुःखातः सेवते कामान्, सेवितास्ते च दुःखदाः । 'दुःखार्त पुरुष 'काम' का आसेवन करता है। वे आसेवित 'काम' यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसंगस्तेषु न क्षमः ॥" उसके लिए दुःखदायी होते हैं । यदि तुझे दुःख प्रिय नहीं है तो 'काम' में प्रवृत्ति करना उचित नहीं है।' १३७. अमरायइ महासड्डी। सं०---अमरायते महाश्रद्धी। काम और अर्थ में जिसकी महान् श्रद्धा होती है, वह अमर की भांति आचरण करता है। १.जो व्यक्ति किंकर्तव्यता (अब यह करना है, अब वह करना है, इस चिन्ता) से आकुल होता रहता है, वह मूढ कहलाता मूढ व्यक्ति सुख का अर्थी होने पर भी दुःख पाता है। वह आकुलतावश शयन-काल में शयन, स्नान-काल में स्नान और भोजन-काल में भोजन नहीं कर पाता'सोउं सोवणकाले, मज्जणकाले य मज्जिङ लोलो। जेमे च वराओ, जेमणकाले न चाएइ ॥' मूढ व्यक्ति स्वप्निल जीवन जीता है। वह काल्पनिक समस्याओं में इतना उलझ जाता है कि वास्तविक समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं दे पाता। एक भिखारी था। उसने एक दिन भैस की रखवाली की। भैस के मालिक ने प्रसन्न हो उसे दूध दिया। उसने दूध को जमा दही बना लिया। दही के पात्र को सिर पर रख कर चला। वह चलते-चलते सोचने लगा-इसे मथ कर घी निकालूंगा। उसे बेचकर व्यापार करूंगा। व्यापार में पैसे कमाकर व्याह करूंगा। फिर लड़का होगा। फिर मैं भैस लाऊंगा। मेरी पत्नी बिलौना करेगी। मैं उसे पानी लाने को कहूंगा । वह उठेगी नहीं, तब मैं क्रोध में आकर एडी के प्रहार से बिलौने को फोड़ डालूंगा। दही ढुल जाएगा। वह कल्पना में इतना तन्मय हो गया कि उसने ढुले हुए दही को साफ करने के लिए अपने सिर पर से कपड़ा खींचा। सिर पर रखा हुआ दही का पात्र गिर गया। उसके स्वप्नों की सृष्टि विलीन हो गई। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ८६ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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