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________________ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १३०-१३४ त्वं लालां प्रत्याशी:-कामान् वान्त्वा न तान् पुनरापिबेः' मत चाटो'। इसका तात्पर्य है-कामभोगों का वमन कर उनको पुनः इति विचारविचयात्मकमालम्बनम् । स्वीकार मत करो। यह भी विचार-विचयात्मक आलम्बन है। १३३. मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए । सं०-मा तेषु तिरश्चीनमात्मानमापादयः । तुम अपने-आपको काम के मध्य मत फंसाओ। भाष्यम् १३३-अस्ति मनुष्ये कामः, अस्ति च शरीरे मनुष्य में काम-भावना है और शरीर में काम-आसेवन के कामासेवनस्य विवराणि। यावद् देहासक्तिः तावत् विवर हैं। जब तक देहासक्ति होती है, तब तक मनुष्य उन विवरों के मनुष्यः तेषु मूच्छितो भवति । शरीरं क्वचिदपि स्थितं प्रति मूच्छित होता है। शरीर कहीं भी स्थित हो फिर भी मन बारस्यात तथापि मनः वारं वारं तत्रैव धावति । एतां बार उन विवरों के प्रति दौड़ता है । इस स्थिति को जानकर भगवान् स्थितिं विज्ञाय भगवता इति उपदेशसूत्रं प्रोक्तम्-तेषु ने यह उपदेश-सूत्र कहा-तुम उन छिद्रों के बीच अपने आपको मत देहविवरेषु आत्मानं मा तिरश्चीनं-मध्यगतं आपादयेः। फंसाओ। १३४. कामंकमे खलु अयं पुरिसे, बहमाई, कडेण मूढे पुणोतं करेइ लोभं। सं०-कामंकमः खलु अयं पुरुषः बहुमायी, कृतेन मूढः पुनः तं करोति लोभम् । पुरुष कामकामी होता है । वह कामना की पूर्ति के लिए बहुतों को ठगता है। वह अपने ही कृत कार्यों से मूढ होकर पुनः ललचाता है। भाष्यम् १३४-कामान् इच्छामदनरूपान् कमते- काम दो प्रकार के हैं-इच्छाकाम और मदनकाम । जो काम अभिलषति स कामंकमः इत्युच्यते । एतादृशः पुरुषः की अभिलाषा करता है वह कामंकम कहलाता है। ऐसा व्यक्ति अपनी स्वकामनापूर्तये बहीं मायां करोति इति बहुमायो कामनाओं की पूर्ति के लिए बहुत माया करता है, इसलिए वह बहभवति । स च पदार्थेषु लुभ्यति । किमर्थं लुभ्यति मायावी होता है । वह पदार्थों में लुब्ध होता है । वह लुन्ध क्यों होता इति जिज्ञासायां सूत्रकारः अनुवृत्तेः सिद्धान्तं दर्शयति- है, इस जिज्ञासा को समाहित करने के लिए सूत्रकार अनुवृत्ति के मनष्यः यत्कार्यं करोति तस्य वत्तिर्जायते। सा वृत्तिः सिद्धांत का निरूपण करते हैं-मनुष्य जो कार्य करता है उसकी वृत्ति अनवत्ता भवति--पूनः पुन: प्रकटिता भवति । तात्पर्य- अर्थात संस्कार मन में अंकित होता है। वह संस्कार बार-बार प्रकट मिदम्-मनुष्यः वृत्तिबद्धः सन् लोभादिषु प्रवर्तते। होता है । यह अनुवृत्ति का सिद्धांत है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य संस्कार से प्रतिबद्ध होकर लोभ आदि वृत्तियों में प्रवृत्त होता है। १. तिर्यगेव तिरश्चीनम् । तिर्यगशब्दस्य वक्रः सर्पाकारः मध्यः इत्यादयोऽनेके अर्था विद्यन्ते। (आप्टे-संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी)। अत्र मध्यवाची अर्थः अभिप्रेतोऽस्ति । २. वृत्तौ 'कासंकासे' (पत्र १२५) इति पाठः व्याख्यातोऽस्ति । स न समीचीनः प्रतिभाति । अस्य स्थाने 'कामंकम' इति पाठः संभाव्यते । प्राचीनलिप्यां सकारमकारयोः सादृश्यमिव भाति । अस्मिन् पाठे लिपिदोषेण सकारमकारयोः विपर्ययो जात इति कल्पना नास्ति अस्वाभाविकी। चू! 'कामं कामे इति पाठः व्याख्यातोऽस्ति - 'कामं कामे खलु अयं पुरिसे' इमं अज्ज करेमि इमं हिज्जो काहामि , अहवा इमं पुरुवं इमं पच्छा, भणियं च'इमं तावत् करोम्यद्य, श्वः करिष्यामि वा परम् । चिन्तयन् कार्यकार्याणि, प्रेत्याय नावबुद्धर ते । ( अ चू० पृष्ठ ८५) 'जमिणं परिकहिज्जइ'-अस्मिन् उत्तरवतिसूत्रेऽपि कामंकमस्य वारद्वयं उल्लेखो दृश्यते-'जमिणं गरिहिज्जति' जदीति अणुद्दिट्ठस्स गहणं, भण्णति-कतरस्स अणुद्दिद्वस्स? कामंकमस्स बहुमायिणो मूढस्स........... अहवा इमस्स चेव परिवूहणताए, कामंकमे बहुमायो पुणो तं करेति । (आ० चू० पृष्ठ ८६) चूणिसम्मतपाठस्य व्याख्या स्वाभाविकी विद्यते। 'कामकमे' की तुलना गीता के 'कामकामी' शब्द से की जा सकती है'आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ (गीता, २०७०) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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