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________________ १०८ आचारांगभाष्यम् स्थासु मृत्योरागमस्य अस्ति अवकाशः। तेन सभी अवस्थाओं में मौत के आने का अवकाश है। इसलिए ध्रुवध्रुवचारित्वमभीष्टम् । ध्रुवचारी अप्रमत्तो भवति, चारित्व-शाश्वत के प्रति गमन इष्ट है। वास्तव में जो ध्रुवचारी अप्रमत्तो वा ध्रुवचारी भवति । होता है वह अप्रमत्त होता है-मृत्यु के प्रति जागरूक होता है अथवा जो अप्रमत्त होता है वह ध्रुवचारी होता है। ६३. सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा । सं०-सर्वे प्राणाः प्रियायुषः सुखस्वादाः दुःखप्रातकूलाः अप्रियवधाः प्रियजीविनः जीवितुकामाः । सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं, उन्हें दुःख प्रतिकूल है । उन्हें वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते हैं। ६४. सव्वेसि जीवियं पियं । सं०-सर्वेषां जीवितं प्रियम् । सब प्राणियों को जीवन प्रिय है। पशुओं के जी के लिए हिंसा तय: हिंसापूर्व ६५. तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुजियाणं संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा वा बहुगा वा। सं०-तत् परिगृह्य द्विपदं चतुष्पदं अभियुज्य संसिच्य त्रिविधेन यापि तस्य तत्र मात्रा भवति--अल्पा वा बहुका वा। परिग्रह में आसक्त पुरुष द्विपद (कर्मकर) और चतुष्पद (पशु) का परिग्रह कर, उन्हें बलात् सेवा में नियोजित कर वह अर्थ का संवर्धन करता है । त्रिविध प्रयत्न से उसके पास अर्थ की अल्प या बहुत मात्रा हो जाती है। भाष्यम् ६३-६५–परिग्रहार्थं हिंसा क्रियमाणास्ति। परिग्रह के लिए हिंसा की जाती है । अनेक मनुष्यों और अनेकेषां मनुष्याणां पशूनाञ्च जीवनस्य निग्रहोऽपि पशुओं के जीवन का निग्रह भी किया जाता है। परिग्रह का संचय क्रियमाणोऽस्ति । परिग्रहस्य संचयः हिंसापूर्वको भव- हिंसापूर्वक होता है, यही प्रस्तुत तीन सूत्रों (६३-६५) में बताया तीति प्रदर्श्यते सूत्रत्रयेण । सर्वेषां प्राणिनां आयू : प्रिय- गया है । सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है । उनको सुख का आस्वाद मस्ति, अनुकलोऽस्ति सुखास्वादः, दुःखमस्ति प्रतिकलं, अनुकूल लगता है । दुःख उन्हें प्रतिकूल लगता है। उन्हें वध अप्रिय वधः अप्रियः, कामभोगसम्पन्नमस्ति च जीवनं प्रियम । है, कामभोगों से युक्त जीवन प्रिय है। वे निरुपक्रम (अकालमृत्युते सन्ति निरुपक्रमं जीवितुकामा:।' रहित) जीवन जीना चाहते हैं। सर्वेषां प्राणिनां स्वतन्त्रं जीवनं प्रियमस्ति। केऽपि सभी प्राणियों को स्वतंत्र जीवन प्रिय है। कोई किसी की कस्यचिदधीनतां नेच्छन्ति, तथापि परिग्रहासक्तः पुरुषः अधीनता में रहना नहीं चाहता, फिर भी परिग्रह में आसक्त पुरुष तेषां प्राणिनां द्विपदानां चतुष्पदानाञ्च जीवनं परिगृह्य द्विपद- नौकर-चाकर तथा चतुष्पद-पशुओं को अपने अधीन रखकर, -स्वायत्तीकृत्य, तान् अभियोगेन–बलात् सेवायां उन्हें बलात् सेवा में नियोजित कर, अर्थ का संचय करता है। . नियोज्य अर्थ सञ्चिनोति । त्रिविधेन--स्व-पर-तदुभयप्रयत्नेन अथवा मानसिक- पुरुष तीन प्रकार से अर्थ का अर्जन करता है-वह स्वयं धनवाचिक-कायिकप्रयत्नेन तस्य पावें अल्पा वा बह्वी वा संग्रह करने का प्रयत्न करता है, दूसरों का सहयोग लेकर अर्थार्जन करता है अथवा स्व-पर के प्रयत्न से वह धन-संचय करता है । अथवा १. 'सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय'-यहां यह चर्चा परिग्रह प्रिय और दुःख अप्रिय है। अर्थार्जन के क्षेत्र में सामाजिक के प्रकरण में की गई है। परिग्रह का संचय करने वाला स्तर पर शोषण और अनैतिकता चलती है, वह इसी सत्य अपना दुःख दूर करने और सुख प्राप्त करने का प्रयत्न की विस्मृति का परिणाम है। भगवान् ने बार-बार इस करता है । वह दूसरों के सुख की हानि न हो, इसका ध्यान सत्य की याद दिलाकर व्यवहार को आत्मतुला की भूमिका नहीं रखता। वह इस सत्य को भुला देता है-जैसे मुझे पर प्रतिष्ठित करने का दिशा-निर्देश दिया है। सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी सुख Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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