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________________ अ० २. लोकविचय, उ०३. सूत्र ६३-६६ १०६ अर्थमात्रा' भवति, यथा-सहस्रपतिः लक्षपतिः कोटि- वह मानसिक, वाचिक या शारीरिक प्रयत्नों के द्वारा अर्थ-संचय करने पतिरिति। में प्रयत्नशील होता है। उन प्रयत्नों के फलस्वरूप उसके पास अल्प या बहुत धन-संचय हो जाता है। कोई सहस्रपति, कोई लक्षाधिपति और कोई कोट्याधीश बन जाता है । ६६. से तत्थ गढिए चिट्टइ, भोयणाए। सं०–स तत्र ग्रथितः तिष्ठति भोजनाय । वह उस अर्थ-राशि में आसक्त रहता है और भोग के लिए उसकी अपेक्षा रखता है। भाष्यम् ६६--स पुरुषः तस्मिन् सञ्चिते अर्थराशौ वह पुरुष उस संचित अर्थ-राशि में आसक्त रहता है । सुखगद्ध : तिष्ठति । स भोगाय अर्थमपेक्षते । तदर्थमेव च तत्र सुविधा के उपभोग के लिए उसे धन की अपेक्षा रहती है, इसीलिए वह मुच्छितो भवति । उसमें मूच्छित हो जाता है। ६७. तओ से एगया विपरिसिढ़ संभूयं महोवगरणं भवइ । सं०---ततः तस्य एकदा विपरिशिष्टं संभूतं महोपकरणं भवति । भोग के बाद बची हुई प्रचर अर्थ-राशि से उसके पास विपुल अर्थ-राशि हो जाती है। भाष्यम् ६७-ततः भोगार्थं अर्थ रक्षां कुर्वतः फिर सुख-सुविधा के उपभोग के लिए धन को बचाते-बचाते कदाचित् विपरिशिष्टं धनं संभूतं भवति, संभूतत्वाच्च उसके पास धन का संचय होता जाता है और वह संचित धन-राशि महोपकरणं भवति--अर्थस्य महान् राशिरिति । धीरे-धीरे विपुल बन जाती है । ६८. तं पिसे एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ। सं० -तदपि तस्य एकदा दायादाः विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य अपहरति, राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य, विनश्यति वा तस्य, अगारदाहेन वा तस्य दह्यते । एक समय ऐसा आता है कि उस संचित धनराशि से दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं, या चोर उसका अपहरण कर लेते हैं, या राजा उसे छीन लेते हैं, या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है, या गृहदाह के साथ जल जाती है। भाष्यम् ६८-सन्निचितोऽर्थ: अनेकेषु आकांक्षां जन- संचित धन-राशि अनेक लोगों में आकांक्षा पैदा करती है यह यति इति वस्तुसत्यम् । तस्य तिस्रोऽवस्था भवन्ति- वस्तुसत्य है। धन की तीन अवस्थाएं होती हैं-अर्जन, भोग और अर्जनं भोगो विनाशश्च । तत्र तृतीयावस्थाया अपरि- विनाश । यहां तीसरी अवस्था-विनाश की अनिवार्यता दिखाई गई हार्यत्वमिहास्ति दर्शितम् ---तं विपरिशिष्टमर्थं कदाचित् है। भागीदार उस बचे हुए धन का हिस्सा बंटा लेते हैं । अथवा चोर दायादा विभजन्ति, अदत्तहारो वा अपहरति, राजानो उसका अपहरण कर लेते हैं । अथवा राजा उसे छीन लेते हैं। अथवा वा अवच्छिन्दन्ति, स्वतः एव नश्यति वा विनश्यति वा, वह स्वत: नष्ट-विनष्ट हो जाता है । अथवा गृहदाह के साथ वह जल अगारदाहेन वा दह्यते। कर नष्ट हो जाता है। ६६. इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ। सं०---इति स परस्य अर्थाय क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाण: तेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति । इस प्रकार अज्ञानी पुरुष दूसरे के लिए क्रूरकर्म करता हुआ उस दुःख में मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है। १. प्रस्तुतसूत्रस्य चूणौ 'तत्थ' इति पदं नास्ति व्याख्यातम् अर्थमात्रा इत्युल्लिखितम (वृत्ति पत्र, १११)। (पृ०६८)। ८१ सूत्रेऽपि नास्ति व्याख्यातम् (पृ० ७२) । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ६९ : जस्सति चउप्पयादि सयमेव, वृत्तावस्ति । अत्र 'अस्थमत्ता' इति पाठस्य सम्भावनापि ......"विणस्सति जं विणा परिभोगेण कालेण विणस्सइ । सहनतया जायते । वृत्तिकारेणापि सोपस्कारत्वात् सूत्राणां ......"अहवा णावाए भिण्णाए सव्वं विणस्सइ दुक्खेण महर प्रकुर्वाण र के लिए Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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