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आचारांगभाष्यम्
भाष्यम् ६९-अज्ञानी पुरुषो धनमर्जयन् मुख्यतया अज्ञानी पुरुष धन का अर्जन करता हुआ मुख्यतया पर अर्थात परस्येति परिवारस्यार्थ क्रूराणि कर्माणि प्रकुरुते । तेन परिवार के लिए क्रूरकर्म करता है । क्रूरकर्म करना दुराचरण है । स्वकृतेन क्रूरकर्मादिदुराचरितेन दुःखहेतुत्वात् दुःखेन वह दुःख का हेतु है । अपने द्वारा किए गए क्रूरकर्म से अजित दुःख से मूढः सन् विपर्यासमुपैति--सुखार्थी सन् दुःखं प्राप्नोति ।' मूढ होकर वह व्यक्ति विपर्यास को प्राप्त होता है -सुख का अर्थी
होकर दुःख को प्राप्त होता है ।
७०. मुणिणा हु एवं पवेइयं ।
सं०--मुनिना खलु एतत् प्रवेदितम् । यह मुनि ने कहा है।
भाष्यम् ७०-एतत् सत्यं मुनिना-परमज्ञानिना यह सत्य मुनि-परमज्ञानी भगवान् महावीर ने कहा है। भगवता महावीरेण प्रवेदितम् । ७१. अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, नो य पारं गमित्तए।
सं०-अनोघन्तराः एते, नो च ओघ तरितुम् । अतीरङ्गमाः एते, नो च तीरं गन्तुम् । अपारङ्गमाः एते, नो च पारं गन्तुम् । ये अनोघंतर हैं-ओघ को तैरने में समर्थ नहीं हैं। ये अतीरंगम हैं--तोर तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं। ये अपारंगम हैं-पार तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं।
भाष्यम् ७१-एते क्रूरकर्माणः परिग्रहिणो मनुष्या ये क्रूरकर्म करने वाले परिग्रही मनुष्य भनोघंतर होते हैं-दुःख अनोख़तरा भवन्ति, न च समर्था भवन्ति ओघं तरितुम्। के प्रवाह को तरने में समर्थ नहीं होते। ये अतीरंगम होते हैंएते अतीरंगमा भवन्ति, न च समर्था भवन्ति तीरं दुःख के तट तक पहुंचने में समर्थ नहीं होते । ये अपारंगम होते हैं-पार गन्तुम । एते अपारंगमा भवन्ति, न च समर्था भवन्ति तक पहुंचने में समर्थ नहीं होते। पारं गन्तुम् ।
परिग्रहस्य क्रूरतायाश्च अस्ति कश्चिद् आन्तरिक: परिग्रह और क्रूरता में कोई आंतरिक संबंध है। जैसे-जैसे संबंधः। यथा यथा परिग्रहो वर्धते तथा तथा मृदुताया: परिग्रह बढता है, वैसे-वैसे मृदुता का ह्रास होता है और क्रूरता बढती ह्रासः करतायाश्च वृद्धिः भवतीति साक्ष्यमस्ति मानव- जाती है । इसका साक्षी है मानवजाति का इतिहास । दुःखमुक्ति का जातेरितिहासः । दुःखमुक्तेरुपायोऽस्ति मृदुता। क्रूरता उपाय है-मृदुता। क्रूरता सामाजिक सम्बन्धों को समस्या-संकुल सामाजिकसंबंधान् समस्यासंकुलान् कृत्वा मनुष्यं बनाकर मनुष्य को अपारंगम बना देती है-वह पार नहीं पहुंचा पाती। अपारंगमं करोति । ओघः-दुःखस्य प्रवाहः ।
ओघ का अर्थ है-दुःख का प्रवाह । तीरम्-दुःखस्य तटम् ।
तीर का अर्थ है-दुःख का तट । पारम्-परवर्तितटम् ।
पार का अर्थ है-परवर्ती तट ।
१. आचारांग वृत्ति, पत्र ११२ :
रागद्वषाभिभूतत्वात्, कार्याकार्यपराङ मुखः।
एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः ॥ २. आम का फल जैसे आम कहलाता है, वैसे ही आम का बीज भी आम कहलाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल संवेदन जैसे दुःख कहलाता है, वैसे ही प्रतिकूल संवेदन का हेतुभूत कर्म भी दुःख कहलाता है। जो दार्शनिक कार्य और कारण को पृथक्-पृथक् देखते हैं, वे दुःख के मूल को
समाप्त नहीं कर पाते। फलतः वह मूल बार बार फलित होता है-मनुष्य को मूढ बनाता है। __ जो क्रूरकर्म करता है, वह मूढ होता है और जो मूढ होता है वह विपर्यास को प्राप्त होता है-यह कार्य-कारण
को शृंखला है। ३. आचारांग वृत्ति, पत्र ११२: तरतेश्छान्दसत्वात् खश खित्त्वान्मुमागमः।
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