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अ० २. लोकविचय, उ० ३. सूत्र ७०-७३
७२. आवाणिज्जं च आयाय, तम्मि ठाणे ण चिट्ठइ वितहं गप्पखेयण्णे, तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ ।
सं० - आदानीयं च आदाय तस्मिन् स्थाने न तिष्ठति । वितथं प्राप्य अक्षेत्रज्ञः तस्मिन् स्थाने तिष्ठति । अनात्मज्ञ पुरुष आदानीय (अपरिग्रह) को प्राप्त कर उस स्थान में स्थित नहीं होता। वह वितथ (परिग्रह) को प्राप्त कर उस स्थान में स्थित होता है।
भाष्यम् ७२ - प्रस्तुतागमे 'आयाणिज्ज' पदस्य प्रयोगो नैकवारं दृश्यते।' 'आयाणीय' इति पदमपि बहुधा प्रयुक्तमस्ति । अनयोः पदयोः अनेके अर्था वर्तन्ते, यथासंयमः । पंचविधः आचार: । आदेयः अथवा ज्ञानादीनि । ग्राह्य सम्यग्दर्शनादि आदानीयं श्रुतम् । आदानीयं आदातव्यं भोगांगं द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि आदानीय आदेयवचनः । आदीयते इत्यादानीय कर्म । " अत्र प्रकरणवशात् तद् अपरिग्रहे वर्तते ।
अक्षेत्रज्ञः -- अनात्मज्ञः पुरुषः आदानीयं - अपरिग्रहं आदाय तस्मिन् स्थाने अपरिग्रहस्य स्थाने न तिष्ठति । वितथमिति परिग्रहं प्राप्य तस्मिन् स्थाने परिग्रहस्य स्थाने तिष्ठति ।
अनात्मवित् पुरुषः परिग्रहस्य पदार्थस्य वा मूर्च्छा परिहर्तुं न तीरयति यदा कदा यथाकथंचित् आदानीयं आदायापि आत्मन: पुद्गलस्य च भेदविज्ञानानुदया वस्थायां भेदविज्ञानलब्धे अपरिग्रहस्थाने न स्थातुमर्ह तोति सुनिश्चितमिदम् ।
७३. उद्देसो पासगस्स पत्थि ।
सं० – उद्देश : पश्य कस्य नास्ति ।
इष्टा के लिए कोई उद्देश व्यपदेश नहीं है ।
भाष्यम् ७३ - यः वस्तुसत्यं पश्यति स पश्यकः । तस्य उद्देशो नास्ति उद्देशः व्यपदेशः, यथा सुखी दु:खी, क्रोधी, मानी, मायी, लोभी, धनी, निर्धन इति । पश्यकः एतावृशमुद्देशमतिक्रम्य सततमात्मस्वतामनु भवति विकल्पजनितञ्च दुःखमतिवर्तते । "
१. आयारो, २०७२; ४।४४; ६ ५१ ।
२. वही, १२४, ४७, ७८, १०६, १३३,१५७; २।१४८ ।
३. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २२ ।
४. वही, पृष्ठ ७० ।
५. वही, पृष्ठ १५० ।
६. आचारांग वृत्ति, पत्र ३४ ।
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प्रस्तुत आगम में 'आयाणिज्ज' तथा 'आयाणीय' पद का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इन दोनों शब्दों के अनेक अर्थ हैं, जैसे- संयम पांच प्रकार का आचार, आदेय अथवा ज्ञान आदि, ग्राह्य सम्यग्दर्शन आदि, श्रुत, द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य, हिरण्य आदि आदेय भोगांग, आदेववचन तथा कर्म प्रस्तुत प्रकरण में उसका अर्थ है - अपरिह
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अक्षेत्रज्ञ - अनात्मज्ञ पुरुष आदानीय-अपरिग्रह को प्राप्त कर उस स्थान – अपरिग्रह के स्थान में स्थित नहीं होता । वह वितथपरिग्रह को प्राप्त कर उस स्थान परिह के स्थान में स्थित होता
है ।
अनात्मविद मनुष्य परिग्रह तथा पदार्थ की मुच्छी का परिहार करने में समर्थ नहीं होता। जब कभी तथा जैसे-जैसे अपरिग्रह प्राप्त कर लेने पर भी उसमें आत्मा और पुद्गल का भेदविज्ञान उचित नहीं होता, ऐसी स्थिति में वह भेदविज्ञान से प्राप्त होने वाले अपरिग्रह के स्थान में स्थित नहीं हो पाता, यह सुनिश्चित है ।
जो वस्तु सत्य को देखता है वह द्रष्टा होता है। उसका उद्देश नहीं होता उद्देश का अर्थ है-पदेश जैसे सुखी, दुःखी, फोधी, मानी, मायी, लोभी, धनी, निर्धन आदि। द्रष्टा इस प्रकार के व्यपदेश का अतिक्रमण कर सदा आत्मस्थता का अनुभव करता है और विकल्पजनित दुःख का अतिक्रमण कर देता है ।
७. वही, पत्र ११२ ।
८. वही, पत्र ११२ ।
९. वही, पत्र १७५ ।
१०. वही, पत्र २२० । ११. व्रष्टव्यम् - आयारो २।१८५ ।
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