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आचारांगभाष्यम् ७४. बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणुपरियट्टइ। --त्ति बेमि ।
सं० --बालः पुनः स्निहः कामसमनोज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेव आवतं अनुपरिवर्तते । - इति ब्रवीमि । अज्ञानी पुरुष स्नेहवान् और काम-प्रार्थी होकर दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी बना हुआ दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता है। -ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् ७४-यः पुनः बालो भवति, पश्यको न जो अज्ञानी होता है, द्रष्टा नहीं होता, वह स्नेहिल पुरुष काम भवति, स स्नेहवान् कामसमनोज्ञः--कामं प्रार्थयमानः की प्रार्थना करता हुआ विषय और परिग्रह से समुत्पन्न दुःख का विषयपरिग्रहसमुत्थं दुःखं नोपशमितुमर्हति । अशमित- उपशम नहीं कर सकता। वह दुःख का उपशमन न करने के कारण दुःखः स शारीरमानसाभ्यां दु:खाभ्यां दुःखी भूत्वा शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी होकर दुःखों के आवर्त में ही दुःखानामेव आवर्त्तमनुपरिवर्तते ।
बार-बार घूमता रहता है। बालस्य पुनः सूखी, दु:खी, क्रोधी-एवं विध उद्देशो अज्ञानी पुरुष के लिए सुखी, दुःखी, क्रोधी-आदि का व्यपदेश भवति ।
होता है।
चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक
७५. तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति ।
सं०-ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते । उसके पश्चात् कदाचित् मनुष्य के शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
भाष्यम् ७५ - अर्थ: कामस्य साधनमस्ति । अर्थवान् धन काम का साधन है। धनवान पुरुष कामों का सेवन करता पुरुष: कामान् सेवते । ततः कामासेवनात एकदेति है। काम का आसेवन रोगों की उत्पत्ति का कारण बन सकता है। सम्भाव्यते रोगाणां समुत्पत्तिः। भगन्दरो वातादि- चूर्णिकार के अनुसार काम के आसेवन से भगंदर, वात आदि रोग तथा रोगाश्च उत्पद्यन्ते इति चूर्णिकारः । धातुक्षयभगन्द- वृत्तिकार के अनुसार धातुक्षय, भगंदर आदि रोग उत्पन्न होते हैं। रादयो रोगा: समुत्पद्यन्ते इति वृत्तिकारः। चरकेऽपि चरक में भी इस तथ्य की संवादिता प्राप्त होती है। अस्य संवादित्वं लभ्यते । ७६. जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियया पुग्विं परिवयंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवएज्जा।
सं०-यः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः पूर्वं परिवदन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चाद् परिवदेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीयजन एकदा उसके तिरस्कार की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार करने लग जाता है।
भाष्यम् ७६-यैः सह संवासोऽस्ति तेऽपि निजका जिनके साथ सहवास होता है वे आत्मीयजन कभी नीरोग जना एकदा पूर्वमिति नीरोगावस्थायां सर्वकर्मक्षमा- अवस्था और सम्पूर्ण कार्यक्षम अवस्था में राजकुल, सभा या उद्यान को वस्थायाञ्च राजकुलं सभां उद्यानं वा गच्छन्तं तं अनु- जाते हुए उस व्यक्ति का अनुगमन करते हैं, उसके साथ-साथ जाते हैं। गच्छन्ति । रोगावस्थायां कर्माऽक्षमावस्थायाञ्च ते तं वही व्यक्ति जब रोग से आक्रांत और कार्य करने में अक्षम हो जाता है परिभवन्ति । पश्चादिति स्वपरिभवानन्तरं सोऽपि तान् तब वे आत्मीयजन उसका तिरस्कार करते हैं। अपने तिरस्कार के बाद निजकान् परिभवति ।
वह भी उन आत्मीयजनों का तिरस्कार करने लग जाता है। १. द्रष्टव्यम्--आयारो २।१८६ ।
३. आचारांग वृत्ति, पत्र ११३ : कामा दुःखात्मका एव, नत्र २. आचारांग चणि, पृष्ठ ७१: अहवा अतिकामासत्तस्स इहेब
चासक्तस्य धातुक्षयभगन्दरादयो रोगाः समत्पद्यन्ते। भगंदरो अंतविहिमाति रोगा ...... वाताति उप्पज्जन्ति । ४. तुलमा-आचारांगभाष्यम्, श६।
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