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________________ अ० २. लोकविजय, ०३. सूत्र ५६-६२ तपःप्रभृतीनां का कथा ? तपः - - स्वादविजयः आसनविजयादि । बमः - इन्द्रियविजयः कषायविजयश्च । नियमः ख्यानम् ।' परिमितकालाय भोगोपभोगवस्तूनां प्रत्या भाष्यम् ६० अज्ञानी पुरुषः सम्पूर्ण निर्व्यापात विभवपूर्ण जीवन जीवितुकामः लालप्यते पुनः पुनः सुखं प्रार्थयते किन्तु परिग्रहासक्तिमूढः सन् विपर्यास मुपैति सुखार्थी सन् दुःखमाप्नोति । * ६०. संपुर्ण वाले जीविकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासुवेद । सं० - संपूर्णां बालः जीवितुकामः लालप्यमानः मूढः विपर्यासमुपैति । अज्ञानी पुरुष व्याघात रहित वैभवपूर्ण जीवन जीने की कामना करता है। वह बार-बार सुख की कामना करता है किन्तु वह मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है । भाष्यम् ६१ - ये जनाः परिग्रहमूर्द्धायाः परिणाम ज्ञात्वा वचारिणः शाश्वतं प्रति गतिशीलाः भवन्ति इदं अशाश्वतं विभवपूर्ण विपर्यासपूर्ण वा जीवनं नाव कांक्षन्ति परिग्रहमूर्द्धाया फलमस्ति जन्ममरणं - । नानायोनिषु परिभ्रमणं अन्धत्वादिनानावस्थाया अनुभवनञ्च । एतत्परिज्ञाय अमूच्छितचित्तः पुरुषः बुडे संक्रमणे वरेत् । संक्रमणं - सेतुः । अत्र तस्य तात्पर्यमस्ति अपरिग्रहः । ६२. णत्थि कालस्स नागमो । ६१. इणमेवावति, जे जणा ध्रुवचारिणो जाती मरणं परिणाय, चरे संकमणे बढे । सं० - इदमेव नायकांक्षति ये जनाः ध्रुवचारिणः । जातिमरणं परिज्ञाय चरेत् संक्रमणे दृढे ।। जो पुरुष शाश्वत की ओर गतिशील हैं, वे इस विपर्यासपूर्ण जीवन को जीने की इच्छा नहीं करते । जन्म-मरण को जानकर वह मोक्ष के दृढ सेतु अपरिग्रह पर चले । सं० - नास्ति कालस्य अनागमः । मृत्यु के लिए कोई भी क्षण अनवसर नहीं है। भाष्यम् ६२ -- अध्रुवं विहाय ध्रुवं प्रति गमनस्य हेतुरुपदर्श्यते - पुरुषः विभवपूर्णं जीवनमभिलषति, किन्तु तत् कियच्चिरं तिष्ठति ? नास्ति कालस्य कोऽपि अनागम:एतादृशः कोऽपि क्षणो नास्ति यस्मिन् मृत्युर्नागच्छेत् । दिनेऽपि राजावपि बाल्येऽपि यौवनेऽपि सर्वास्वप्यव १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ८९ : दिवा रजनी या पक्षी मासस्ततुरगं था। इतिकालपरित्या प्रत्याख्यानं मवेनियमः ॥ Jain Education International १०७ तप आदि की बात ही कैसे संभव हो सकती है ? तप का अर्थ है - स्वादविजय, आसनविजय आदि । दम का अर्थ है - इंद्रियविजय और कषायविजय । नियम का अर्थ है- परिमित समय के लिए भोग-उपभोग की वस्तुओं का प्रत्याख्यान । अज्ञानी पुरुष निर्विघ्न वैभवपूर्ण जीवन जीने की इच्छा करता है और वह बार-बार सुख की अत्यधिक कामना करता रहता है, किंतु परिग्रह की आसक्ति से मूढ होकर यह विपर्यास को प्राप्त होता है सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है । जो लोग परिग्रह को मूर्च्छा के परिणाम को जानकर ध्रुवचारी शाश्वत की ओर गतिशील होते हैं, ये इस अशाश्वत वैभवपूर्ण और विपर्यासपूर्ण जीवन की आकांक्षा नहीं करते । परिग्रह की मूर्च्छा का फल है जन्म-मरण - नाना योनियों में परिभ्रमण और अन्धता आदि नाना अवस्थाओं का अनुभव यह जानकर अमृति चित्त वाला पुरुष दृढ संक्रमण से पले संक्रमण का अर्थ है यहां उसका तात्पर्य है अपरिग्रह । अशाश्वत को छोड़कर शाश्वत की ओर गति करने के हेतु का उपदर्शन किया जा रहा है - पुरुषं वैभवपूर्ण जीवन की अभिलाषा करता है, किंतु वह जीवन कितने समय तक ठहरता है ? काल का कोई अनागम नहीं है- ऐसा कोई भी क्षण नहीं है जिसमें मोत न आ के दिन में भी रात में भी, बचपन में भी और जवानी में भी, 1 २. द्रष्टव्यम् - आयारो, २।१५१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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