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________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०६-७. सूत्र १४३-१४७ ७५ हिंसाकर्मणि प्रतीयमानं हितमन्ततोऽहितं भवति, हिंसा की प्रवृत्ति में प्रतीत होने वाला हित अंत में अहित ही दुश्चीर्णानि कर्माणि दुश्चीर्णानि फलानि भवन्ति, इति होता है। बुरे आचरण से उपाजित कर्मों का बुरा फल होता है। अहितबोधे सति सहजं भवति हिंसाविरमणम् । इस अहित का बोध होने पर हिंसा से सहज ही विरति हो जाती है । १४७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ। सं०-यः अध्यात्म जानाति, स बहिर्जानाति । यः बहिर्जानाति, स अध्यात्म जानाति । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है । जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है।' भाष्यम् १४७---इदमप्यालम्बनसूत्रम्। अध्यात्म- यह भी आलम्बन सूत्र है। विभिन्न संदर्भो में 'अध्यात्म' पद पदस्य सन्दर्भगता अनेके अर्थाः जायन्ते के अनेक अर्थ होते हैं१. आत्मानमधिकृत्य प्रवृत्तं अध्यात्मम् । १. अन्तरात्मा में होने वाली प्रवृत्ति अध्यात्म है । २. मनसः परवति चैतन्यं अध्यात्मम् । २. मन से परे का चैतन्य अध्यात्म है। ३. कायवाङ मनसां भेदेऽपि यत् चेतनायाः सादृश्य ३. शरीर, वाणी और मन की भिन्नता होने पर भी चेतना की तद् अध्यात्मम् । जो सदृशता है, वह है अध्यात्म । ४. संवेदनं अध्यात्मम् । ४. संवेदन अध्यात्म है। ५. वीतरागचेतना अध्यात्मम् । ५. वीतरागचेतना अध्यात्म है । अत्र अध्यात्मपदस्यार्थं : प्रियाप्रिययोः संवेदनं विद्यते। प्रस्तुत प्रसंग में 'अध्यात्म' पद का अर्थ है-प्रिय और अप्रिय यः अध्यात्म जानाति स बाह्य जानाति--स्वात्माति- का संवेदन । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता हैरिक्तान शेषसर्वप्राणिनो जानाति । तात्पर्यमिदं-यथा अपनी आत्मा के अतिरिक्त, अपने आपके अतिरिक्त, शेष सब प्राणियों स्वात्मनः प्रियाप्रियपरिस्थिती सुखदुःखानुभूतिः जायते को जानता है। तात्पर्य यह है-जैसे स्वयं को प्रिय और अप्रिय तथा बाह्यजीवजगतोऽपि । परिस्थिति में सुख-दुःख की अनुभूति होती है वैसे ही बाह्य जीव जगत् को भी सुख-दुःख की अनुभूति होती है। गतप्रत्यागतशैल्या संदृब्धमिदं सूत्रम्-यो बाह्य यह सूत्र गत-प्रत्यागत शैली में रचा गया है जो बाह्य को जानाति सोऽध्यात्म जानाति । जानता है वह अध्यात्म को जानता है। १. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या अनेक नयों से की जा सकती है, संवेदन परोक्ष है । निमित्तों के मिलने पर जो अपने जैसे में घटित होता है, वही दूसरों में घटित होता है (१) वस्तु का आन्तरिक स्वरूप सूक्ष्म और बाह्य स्वरूप और जो दूसरों में घटित होता है, वही अपने में स्थूल होता है । स्यूल को जानना सरल और सूक्ष्म घटित होता है। को जानना कठिन होता है। सूक्ष्म को जानने वाला (३) ज्ञान सूर्य की भांति स्व-पर-प्रकाशी है। जैसे सूर्य स्थूल को स्पष्टतया जान लेता है। स्थूल को जानने स्वयं प्रकाशित है और दूसरों को प्रकाशित करता वाला सूक्ष्म को उसके माध्यम से ही जान पाता है। है, वैसे ही ज्ञान स्वयं प्रकाशित है तथा दूसरे तत्वों आत्मा आन्तरिक तत्त्व है। उसका चेतन-स्वरूप को भी प्रकाशित करता है। ज्ञान का कार्य है ज्ञेय स्पष्टतया ज्ञात नहीं होता। किन्तु शरीर में उसकी को जानना। ज्ञान स्वप्रकाशी है, इसलिए वह जो क्रिया प्रकट होती है, वह स्थूल है, बाह्य है । अध्यात्म को जानता है-अपने आपको जानता है। उसके माध्यम से जाना जा सकता है कि अचेतन वह परप्रकाशी भी है, इसलिए बाह्य को जानता शरीर चेतना की क्रिया नहीं कर सकता। यह जो है-अपनी आत्मा से भिन्न समग्र ज्ञेय को जानता चेतना की क्रिया प्रकट हो रही है, वह इसके भीतर है। बाह्य जगत् और अन्तर्जगत् को जानने वाला अवस्थित चेतन तत्त्व की क्रिया है। जान एक ही है। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है जो (२) व्यक्ति को सुख-दुःख का संवेबन प्रत्यक्ष होता है, अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है इसलिए सुख-दुःख स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। दूसरे के और जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को सुख-दुःख का संवेदन स्वसंवेदन के आधार पर जाना जानता है। जा सकता है। इसलिए दूसरों के सुख-दुःख का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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