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________________ आचारांगभाव्यम् १४३ तं परिण्णाय मेहावी व सयं तसकाय सत्यं समारंभेज्जा, जेवणेहि तसकाय-सत्यं समारंभावेज्जा ठेवण्णे तसकायसत्यं समारंभंते समणुजाज्जा । सं० ७४ तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं त्रसकायशस्त्रं समारभेत नैवान्यैः सकायशस्त्रं समारम्भयेत् नैवान्यान् सकायशस्त्र समारभमाणान समनुजानीत । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं त्रसकायशस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। १४४. जस्सेते तसकाय सत्य-समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिष्णाय कम्मे । त्ति बेमि । - सं० – यस्यैते त्रसका यशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । जिसके यस सम्बन्धी शस्त्र-समारंभ परिजात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा ( कर्म त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। पूर्ववत् देखें -सूत्र ३१-३४ । भाष्यम् १४१-१४४ -- एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (३१-३४) ज्ञातव्यानि । १४५. पहू एजस्स दुगंछणाए । सं० --- प्रभुः एजस्य जुगुप्साये । अहिंसक पुरुष वाकाविक जीवों की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ हो जाता है। सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक भाष्यम् १४४ - वायुः प्राणिनां प्रवृत्ती सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति । अतः सहजमेवेयं जिज्ञासा जाता कि वायुकायजीवानां वधनिवारणं शक्यम् ? एतां जिज्ञासां समाधातुं सूत्रकारः प्रवक्ति एतच्छक्यमस्ति । पुरुषो वायोर्वधनिवारणं कर्तुं प्रभुरस्ति ।" एज:-- एजते इति एज: वायुः । दुगंछणा - जुगुप्सा । जुगुप्सा, संयमः, अकरणं, वर्जना, विवर्तनं, निवृत्तिरित्येकार्थाः । १४६. आकसी अहियं ति ना Jain Education International जहां कहीं प्राणियों की प्रवृत्ति होती है वहां वायु व्याप्त है। इसलिए सहज ही जिज्ञासा हुई कि क्या वायुकाय के जीवों की हिसा का निवारण शक्य है ? इस जिज्ञासा के समाधान में सूत्रकार कहते हैं - यह शक्य है । पुरुष वायु की हिंसा का निवारण करने में समर्थ है । - इति ब्रवीमि । एज एजते का अर्थ है— कम्पित होना । वायु निरंतर प्रकंपित रहती है इसलिए एज का अर्थ है वायु । - जुगुप्सा । जुगुप्सा, संयम, अकरण, एकार्थक हैं। दुगंछणा - इसका अर्थ है सं०. आतङ्कदर्शी अहितमिति ज्ञात्वा । जो पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, अहित देखता है, वही उससे निवृत होता है। वर्जना विवर्तन और निवृत्ति · भाव्यम् १४६ - आलम्बनसूत्रमिदम् । आतङ्कदर्शनमहितज्ञानञ्च हिंसा विरमणस्यालम्बने भवतः । आतङ्क:- शारीरं मानसं वा दुःखम् । यो हिंसाकरणे आतंक पश्यति स आतदर्शी सहजमेव हिंसातो विरमति । १. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३८ : 'दुगुंछणा नाम संजमणा अकरणा वज्जणा विउट्टणा णियत्तित्ति वा एगट्ठा ।' यह आलम्बन सूत्र है । आतंकदर्शन और अहित का ज्ञानये दोनों हिंसा विरति के आलम्बन हैं । आतंक का अर्थ है - शारीरिक या मानसिक दुःख । जो हिंसा करने में आतंक देखता है यह आतंकदर्शी सहज ही हिंसा से विरत हो जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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