________________
अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ०६. सूत्र १३५-१४२
७३ प्रयोजनवश प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति बिना प्रयोजन ही प्राणियों का वध करते हैं । कुछ व्यक्ति इन्होंने मेरे स्वजन-वर्ग की हिंसा की थी--यह स्मृति कर प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति ये मेरे स्वजन-वर्ग की हिंसा कर रहे हैं—यह सोचकर प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति ये मेरी या मेरे स्वजन-वर्ग की हिंसा करेंगे इस सम्भावना से प्राणियों का वध करते हैं।
भाष्यम् १४०---प्रस्तुतसूत्रे त्रसकायिकजीववधानां प्रस्तुत सूत्र में त्रसकायिकजीवों के वध के प्रयोजनों का निर्देश प्रयोजनानि निर्दिष्टानि। एतानि समाजे प्रचलित- किया गया है। ये प्रयोजन समाज में प्रचलित तत्कालीन परम्पराओं परम्पराणां सूचकानि सन्ति।
के सूचक हैं। अर्चा -शरीरम् । चणौं वत्तौ च कासांचित परम्पराणां अर्चा का अर्थ है-शरीर। चूणि और वृत्ति में कुछेक परंउल्लेखोऽपि लभ्यते-भुक्तविष: हस्तिनं मारयित्वा पराओं का उल्लेख भी मिलता है। हाथी को मार कर यदि उसके तच्छरीरे प्रक्षिप्तो विषमुक्तो भवति। सलक्षणं पुरुषम- मृत-कलेवर में विष खाए हुए व्यक्ति को रखा जाए तो वह व्यक्ति क्षतं व्यापाद्य विद्यामंत्रसाधनानि कुर्वन्ति । केचन बलि- विषमुक्त हो जाता है । कुछ व्यक्ति लक्षण-संपन्न पुरुष को, क्षत-विक्षत निमित्तमजादीन् व्यापादयन्ति ।
किए बिना, मारकर विद्या, मन्त्र आदि की साधना करते हैं। कुछ
लोग बलि के निमित्त बकरे आदि को मारते हैं। अजिनम्-चर्म । सिंहव्याघ्रमृगादीन् एतदर्थ व्यापाद- अजिन का अर्थ है-चर्म । कुछ लोग चर्म के लिए सिंह, बाघ, यन्ति ।
हिरण आदि को मारते हैं। केचन मांस-शोणित-हृदय-पित्त-वसा-पिच्छ-पुच्छ- कुछ लोग मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पांख , पूंछ, केश, बाल-शृङ्ग-विषाण-दन्त-दंष्ट्रा- नख - स्नायु - अस्थि- सींग, विषाण, दांत, दाढ, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा आदि अस्थिमज्जा-इत्याद्यवयवानामर्थमनेकजीवान् व्यापाद- अवयवों के लिए अनेक जीवों का वध करते हैं। यन्ति । अत्र विषाणपदेन हस्तिदन्तानां निर्देशः ।।
यहां 'विषाण' शब्द हाथी के दांतों के अर्थ में निर्दिष्ट है । केवलं प्रयोजनवशंवदा एक जना हिंसायां न प्रवर्तन्ते, लोग प्रयोजनवश ही हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते, किन्तु बिना किन्तु निष्प्रयोजना अपि तत्र प्रवृत्ता दृश्यन्ते । अत एव प्रयोजन भी हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। इसीलिए प्रस्तुत सूत्र का यह अंश एष सूत्रांश:-'केचिदर्थाय जीवान घ्नन्ति, केचिच्च है--'कुछ प्रयोजन के लिए जीवों का हनन करते हैं और कुछ बिना प्रयोजनं विनापि ।'
प्रयोजन भी।' प्रतिशोधप्रतिकाराशंकापरतन्त्रा हिंसायां प्रवर्तन्ते । प्रतिशोध, प्रतिकार और आशंका के वशीभूत होकर लोग हिंसा एतत्सूचयति तृतीयांशः, यथा
में प्रवृत्त होते हैं । यह सूत्र के तीसरे अंश से सूचित होता है, जैसे१. 'अनेन मम कश्चिद सम्बन्धी विघातितः, अतोऽम १. 'इसने मेरे किसी सम्बन्धी को मारा है, इसलिए मैं इसको हनिष्यामि ।'
मारूंगा'-यह प्रतिशोध से की जाने वाली हिंसा है। २. 'असौ हिनस्ति, अतोऽसौ मया हन्तव्यः ।
२. 'यह मेरे स्वजन-वर्ग को मार रहा है, इसलिए मुझे इसको
मार डालना चाहिए'--यह प्रतिकार के लिए की जाने वाली हिंसा है। ३. 'असौ जीवितः सन् मां हनिष्यतीत्यसौ मया ३. 'यह जीवित रहा तो मुझे मारेगा, इसलिए मुझे इसको हन्तव्यः।'
मार देना चाहिए'-यह इस आशंका से की जाने वाली हिंसा है। १४१. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवति ।
सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाताः भवन्ति । जो त्रसकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ (प्रयोग) करता है, वह इन आरम्भों-तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता।
१४२. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति।
सं०-अत्र शस्त्र असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति । जो त्रसकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ नहीं करता, वह इन आरंभों से बच जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org