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आचारांगभाष्यम्
१३५. इच्चत्यं गढिए लोए।
सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य त्रसकायिक जीवनिकाय की हिंसा करता है।
१३६. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं तसकाय-समारंभेणं तसकाय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रैः त्रसकायसमारम्भेण त्रसकायशस्त्रं समारभमाण : अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रस-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन त्रसकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है।
१३७. से बेमि-अप्पेगे अधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे ।
सं०-तद ब्रवीमि अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । मैं कहता हूं-कुछ त्रसकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना बाले होते हैं । शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही कुछ त्रसकायिक जीवों को होती है।
१३८. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे ।
सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्याद, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । इन्द्रिय-सम्पान मनुष्य के पैर आदि (द्रष्टव्यं १।२९) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही कुछ त्रसकायिक जीवों को होती है।
१३६. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उहवए।
सं०-अप्येकः संप्रमारयेद, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही कुछ त्रसकायिक जीवों को होती
भाष्यम् १२९-१३९-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (२०-३०) द्रष्टव्यानि ।
पूर्ववत देखें-सूत्र २०-३० ।
१४०. से बेमि-अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, अप्पेगे
हिययाए वहंति, अप्पेगे पित्ताए वहंति, अप्पेगे वसाए वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे पुच्छाए वहंति, अप्पेगे बालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, अप्पेगे विसाणाए वहंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे दाढाए वहंति, अप्पेगे नहाए वहंति, अप्पेगे ण्हारुणोए वहंति, अप्पेगे अट्ठीए वहंति, अप्पेगे अद्धिमिजाए वहंति, अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणट्टाए वहंति, अप्पेगे हिसिसु मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसिस्संति मेत्ति वा वहंति । सं०-तद् ब्रवीमि अप्येके अर्चाय घ्नन्ति, अप्येके अजिनाय घ्नन्ति, अप्येके मांसाय घ्नन्ति, अप्येके शोणिताय घ्नन्ति, अप्येके हृदयाय घ्नन्ति, अप्येके पित्ताय घ्नन्ति, अप्येके वसाय घ्नन्ति, अप्येके पिच्छाय घ्नन्ति, अप्येके पुच्छाय घ्नन्ति, अप्येके बालाय घ्नन्ति, अप्येके शृङ्गाय घ्नन्ति, अप्येके विषाणाय घ्नन्ति, अप्येके दंताय घ्नन्ति, अप्येके दाढाय घ्नन्ति, अप्येके नखाय घ्नन्ति, अप्येके स्नायवे घ्नन्ति, अप्येके अस्थने घ्नन्ति, अप्येके अस्थिमज्जाय घ्नन्ति, अप्येके अर्थाय घ्नन्ति, अप्येके अनर्थाय घ्नन्ति, अप्येके अहिंसिषुः मे इति वा घ्नन्ति, अप्येके हिंसन्ति मे इति वा घ्नन्ति, अप्येके हिंसिष्यन्ति मे इति वा घ्नन्ति । मैं कहता हूं-कुछ व्यक्ति शरीर के लिए प्राणियों का वध करते हैं। कुछ लोग चर्म, मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, विषाण (हस्तिदंत), दांत, दाढ, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति
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