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आचारांगभाष्यम् इनमें नाम-भेद और क्रम-भेद दोनों हैं । पांचवें अध्ययन का मूल नाम 'लोगसार' ही है। आवंती नाम आदि-पद के कारण हुआ है । अनुयोगद्वार में यह उदाहरण रूप में उल्लिखित है। नियुक्तिकार ने भी आवंती को आदान-पद नाम और लोकसार को गौण नाम माना है। ८. अवान्तर-विभाग
समवायांग में आचारांग के ८५ उद्देशन-काल बतलाए गए हैं। यह दोनों श्रुतस्कंधों की संयुक्त संख्या है। एक अध्ययन का उद्देशन-काल एक होता है, वैसे ही एक उद्देशक का भी उद्देशन-काल एक ही होता है। उद्देशक अध्ययन का अवान्तर-विभाग होता है। आचार के उद्देशकों की संख्या इस प्रकार हैअध्ययन उद्देशक
अध्ययन
उद्देशक
९. पद-परिमाण और वर्तमान आकार
आचारांग नियुक्ति के अनुसार आचारांग की पद-संख्या अट्ठारह हजार है। समवायांग तथा नन्दी में आचारांग के दो श्रुतस्कंध बतला कर फिर अट्ठारह हजार पदों की संख्या बतलाई गई है । किन्तु यह पद-संख्या नव ब्रह्मचर्य अध्ययनों की है । नियुक्तिकार ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है।
अभयदेव सूरि ने समवायांग के संश्लिष्ट पाठ का विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है-'दो श्रुतस्कन्ध हैं, यह आचारचूला सहित आचार का प्रतिपादन है। उसके अट्ठारह हजार पद हैं । यह पद-परिमाण केवल नव ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचार का है। सम्प्रति उपलब्ध आचारांग में अट्ठारह हजार पद प्राप्त नहीं हैं । परम्परा से ऐसा माना जाता है कि रचना-काल में आचारांग का पद-परिमाण इतना था, किन्तु काल-क्रम से उसके ग्रन्थ-भाग का विच्छेद हो गया, इसलिए वर्तमान में पद-परिमाण भी कम हो गया है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य--ये पांच आचार्य एकादशांगधर और चौदह पूर्वो के एक देश के धारक हुए हैं। समुद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य-ये चार आचार्य आचारांग के धारक तथा शेष अंगों और पूर्वो के एक देश के धारक हुए हैं। इनके पश्चात् अर्थात् वीर-निर्वाण ६८३ के पश्चात् आचारांगधर का विच्छेद हो गया । फलतः आचारांग का विच्छेद हो गया। आचारांग का विच्छेद मान लेने पर भी इस तथ्य की स्वीकृति की गई है कि उत्तरवर्ती आचार्य सभी अंगों और पूर्वो के एक देश (अवशिष्ट-भाग) के धारक हुए हैं।
___श्वेताम्बर परम्परा में भी विष्णु मुनि के देहावसान के साथ आचारांग का विच्छेद माना गया है।' तित्थोगाली में भी आगम-विच्छेद की चर्चा प्राप्त है। उसके अनुसार आचारांग का विच्छेद वीर-निर्वाण १३०० (ई०७७३) में बताया गया है। इन परम्पराओं से इतना ही सारांश प्राप्त किया जा सकता है कि आचारांग निर्माण-काल में जितना था, उतना आज नहीं है तथा वह सर्वथा विच्छिन्न भी नहीं है। उसका कुछ विच्छेद आचारांगधर आचार्यों के अभाव में हुआ है तथा कुछ विच्छेद विस्मृतिवश व प्रतियों के प्रामाणिक संस्करणों के नष्ट होने से भी हुआ है। इतना सुनिश्चित है कि शीलांकसूरि (वि० ८वीं शती) को आचारांग का जो अंश प्राप्त था, उसका विच्छेद नहीं हुआ है। अत: तित्थोगाली का विवरण प्रामाणिक नहीं लगता। १. अनुयोगद्वार, सू० १३० : (वृत्ति पत्र १३०) : से कि ५. समवायांग वृत्ति, पत्र १०१ : यद् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि
ते आयाणपएणं ? (धम्मो मंगलं, चूलिया) आवंती। तदाचारस्य प्रमाणं भणितं, यत् पुनरष्टादश पदसहस्राणि तत्र आवंतीत्याचारस्य पंचमाध्ययनं, तत्र हादावेव
तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणम् । 'आवन्ती केयावन्ती'त्यालापको विद्यत इत्यादानपदेनतन्नाम । ६. धवला (षट्खण्डागम) भाग ४, पृ० ६६ । २. आचारांग नियुक्ति, गाथा २३८ : आयाणपएणावंति,
७. वही, भाग १, पृ० ६७ : तदो सव्वेसिमंगं पुम्वाण मेगगोण्णनामेण लोगसारुत्ति ।
बेसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो।
८. अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ३४६ । ३. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू० ८९ ।
९. व्यवहारभाष्य ३१७०४ : ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा ११ :
तित्थोगाली एत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुव्वीए । णवबंभचेरमइओ, अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ।
जे तस्स उ अंगस्स, वुच्छेदो जहि विणिविट्ठो॥
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