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भूमिका
१६
आचारांग का 'महापरिज्ञा' अध्ययन विच्छिन्न हो चुका है-यह श्वेताम्बर आचार्यों का अभिमत है। उस अध्ययन का विच्छेद वज्रस्वामी (वि. पहली शताब्दी) के पश्चात् तथा शीलांकसूरि (वि० आठवीं शताब्दी) से पूर्व हुआ है। वज्रस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से गगनगामिनी-विद्या उद्धृत की थी। इससे स्पष्ट है कि उनके समय में वह अध्ययन प्राप्त था। शीलांकसरि ने उसके विच्छेद होने का उल्लेख किया है।' नियुक्तिकार ने महापरिज्ञा अध्ययन के विषय का उल्लेख किया है तथा उसकी नियुक्ति भी की है। इससे लगता है कि चचित अध्ययन उनके सामने था। चूणिकार के सामने भी महापरिज्ञा अध्ययन रहा है। उन्होंने वृत्तिकार शीलांकसूरि की तरह इसके विच्छेद होने का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने चर्चित अध्ययन के असमनुज्ञात होने का उल्लेख किया है।
यह अध्ययन असमनुज्ञात क्यों और कब हुआ, इसकी चूर्णिकार ने कोई चर्चा नहीं की है। एक अनुश्रुति यह है कि 'महापरिज्ञा' अध्ययन में अनेक मंत्र और विद्याओं का वर्णन था। काल-लब्धि के संदर्भ में उसे पढ़ाने का परिणाम अच्छा नहीं लगा । इसलिए तात्कालिक आचार्यों ने उसे असमनुज्ञात ठहरा दिया-उसका पढ़ना-पढ़ाना निषिद्ध कर दिया। किन्तु निर्यक्तिकार के संदर्भ में हम इस विषय पर विचार करते हैं तो उक्त अनुश्रुति का उससे समर्थन नहीं होता । नियुक्तिकार के अनुसार आचार-चला के सात अध्ययन (सप्तकक) महापरिज्ञा के सात उद्देशकों से नियूंढ़ किए गए हैं। इस उल्लेख के आधार पर सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि जो विषय महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों (सप्तककों) में है, वही विषय महापरिज्ञा अध्ययन में रहा है। ऐसी संभावना भी की जा सकती है कि महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों के प्रचलन के बाद उसकी आवश्यकता न रही हो, फलतः वह असमनुज्ञात हो गया हो और क्रमशः विच्छिन्न हो गया हो । अभी तक हमें अनुश्रुति और अनुमान के अतिरिक्त प्रस्तुत अध्ययन के विच्छेद का पुष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं है। १०. विषय-वस्तु
समवायांग और नन्दी में आचारांग का विवरण प्रस्तुत किया गया है । उसके अनुसार प्रस्तुत सूत्र आचार, गोचर, विनय, वैनयिक (विनय-फल), स्थान (उत्थितासन, निषण्णासन और शयितासन,) गमन, चंक्रमण, भोजन आदि की मात्रा, स्वाध्याय आदि में योग-नियंजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम-उत्थान, एषणा आदि की विशुद्धि, शुद्धाशुद्ध-ग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप, उपधान आदि का प्रतिपादक है।
आचार्य उमास्वाति ने आचारांग के प्रत्येक अध्ययन का विषय संक्षेप में प्रतिपादित किया है। वह क्रमश: इस प्रकार है१. षड्जीवकाय यतना
६. कर्मों को क्षीण करने का उपाय २. लौकिक संतान का गौरव-त्याग ७. वैयावृत्त्य का उद्योग ३. शीत-ऊष्ण आदि परीषहों पर विजय ८. तपस्या की विधि ४. अप्रकम्पनीय-सम्यक्त्व
९. स्त्री-संग-त्याग ५. संसार से उद्वेग नियुक्तिकार ने नव ब्रह्मचर्य अध्ययनों के विषय इस प्रकार बतलाए हैं१. सत्थपरिणा
जीव संयम। २. लोगविजय
बंध और मुक्ति का प्रबोध । ३. सीओसणिज्ज
सुख-दुःख-तितिक्षा। १. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६७९, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ३. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३४ । ३९०
४. वही, गाथा २५२-२५८। देखें-आचारांग वृत्ति, जेणुद्धरिया विज्जा, आगासगमा महापरिन्नाओ।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अंतिम पत्र । वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयधराणं ॥
५. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४४ : महापरिण्णा ण पढिज्जा (ख) प्रभावक चरित, वज्रप्रबन्ध, श्लोक १४८ :
___ असमणुण्णाया। महापरिज्ञाध्ययनाद, आचारांगान्तरस्थितात् ।
६. आचारांग नियुक्ति, गाथा २९० : श्री वज्रणोद्धृता दिद्या, तदा गगनगामिनी ॥
सत्तिक्कगाणि सत्तवि निज्जूढाई महापरिन्नाओ। २. आचारांग वृत्ति, पत्र २३५ : अधुना सप्तमाध्ययनस्य ७. (क) समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू०८९ । महापरिज्ञाख्यस्यावसरः, तच्च व्यवच्छिन्नमितिकृत्वाऽति
(ख) नंदी, सू० ८०। लंध्याष्टमस्य सम्बन्धो वाच्यः ।
८. प्रशमरति प्रकरण, ११४-११७ ।
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