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आचारांगभाष्यम्
४. सम्मत्त
सम्यक्-दृष्टिकोण । ५. लोगसार
असार का परित्याग और लोक में सारभूत रत्नत्रयी की आराधना । ६. धुय
अनासक्ति। ७. महापरिणा
मोह से उत्पन्न परीषहों और उपसगों का सम्यक् सहन । ८. विमोक्ख
निर्याण (अंतक्रिया) की सम्यक्-साधना। ९. उवहाणसुय
भगवान् महावीर द्वारा आचरित आचार का प्रतिपादन ।' आचार्य अकलङ्ग के अनुसार आचारांग का समग्र विषय चर्या-विधान' तथा अपराजित सूरि के अनुसार रत्नत्रयी के आचरण का प्रतिपादन है।'
जैन परम्परा में 'आचार' शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहृत होता है । आचारांग की व्याख्या के प्रसंग में आचार के पांच प्रकार बतलाए गए हैं-(१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चरित्राचार, (४) तपाचार और (५) वीर्याचार । प्रस्तुत आगम में इन पांचों आचारों का निरूपण है। दार्शनिक-तथ्य
सत्त्व-दर्शन की दृष्टि से आचारांग एक महत्त्वपूर्ण आगम है। आचार्य सिद्धसेन ने जैन दर्शन के मूलभूत छह सत्य गिनाए (१) आत्मा है।
(४) भोक्ता है। (२) वह अविनाशी है।
(५) निर्वाण है। (३) कर्ता है।
(६) निर्वाण के उपाय हैं । इनका आचारांग में पूर्ण विस्तार मिलता है। 'आत्मा है'-यह पहला सत्य है। आचारांग का प्रारम्भ इसी सत्य की व्याख्या से हुआ है । इसी व्याख्या के साथ आत्मा के अविनाशित्व का उल्लेख हुआ है । 'पुरुष तू ही तेरा मित्र है" 'यह शल्य तू ने ही किया है"-ये वाक्य आत्मा के कर्तृत्व के उद्बोधक हैं। इसमें 'अनुसंवेदन' का प्रयोग हुआ है। यह क्रिया की प्रतिक्रिया (भोक्तृत्व) का सूचक है। आचारांग में निर्वाण को 'अनन्य-परम' कहा गया है । वहां सब उपाधियां समाप्त हो जाती हैं, इसलिए उससे अन्य कोई परम नहीं है। निर्वाण के उपायभूत सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यग्-चारित्र का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन हुआ है। इन दृष्टियों से आचारांग को जैन दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ कहा जा सकता है। श्रद्धा और स्वतंत्र-दृष्टि
आचारांग श्रद्धा का समुद्र है। 'सड्ढी आणाए मेहावी", 'आणाए मामगं धम्म" आदि वाक्यों में अपने आराध्य के प्रति आत्मार्पण की भावना प्रस्फुटित होती है । आचारांग में श्रद्धा के स्वतंत्र-दृष्टिकोण का स्थान असुरक्षित नहीं है। सत्य की उपलब्धि के तीन साधन बतलाए गए हैं सहसम्मति, परव्याकरण और श्रुतानुश्रुत ।"
इन तीन साधनों में पहला साधन है-स्वस्मृति-अपनी बुद्धि के द्वारा सत्य का अवबोध करना । 'मइम पास"-इस शब्द १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३३-३४ :
५. सम्मति प्रकरण, ३३५५ : जिअसंजमो अ लोगो जह बज्झइ जह य तं पजहियव्वं ।
अत्थि अविणास-धम्मी, करेइ वेएइ अत्थि निव्वाणं । सुहदुक्खतितिक्खाविय सम्मत्तं लोगसारो य॥
अत्थि य मोक्खोवाओ, छ सम्मत्तस्स ठाणाई॥ निस्संगया य छठे मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा ।
६. आयारो, १२ निज्जाणं अट्ठमए नवमे य जिणेण एवंति ॥
७. वही, १।४। २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, १२० : आचारे चर्याविधानं ८. वही, ३१६२ : पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं । शुद्धयष्टकपंचसमितित्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते ।
९. वही, २१८७: तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट । ३. मूलाराधना, आश्वास २, श्लोक १३०, विजयोदया : १०. वही, २१०३३ रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथममंगमाचारं शब्दे- ११. वही, ३१५७ । नोच्यते।
१२. वही, ३८०। ४. समवाभो, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८९ : से समासओ १३. वही, ६।४८ । पंचविहे पण्णते, तं जहा-णाणायारे दसणायारे चरित्तायारे १४. वही, १३ : सह-सम्मइयाए, पर-वागरणेणं, अण्णेसि वा तवायारे वीरियायारे।
____ अंतिए सोच्चा। १५. वही, ३।१२।
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