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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ३. सूत्र ४०-५३ ४६. तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
सं०-तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्यै । वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है। वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है।
४७. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सं०–स तत् संबुध्यमानः, आदानीयं समुत्थाय ।
वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है । ४८. सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे,
एस खलु णरए। सं०- श्रुत्वा खलु भगवत: अनगाराणां वा अंतिके इहै केषां ज्ञातं भवति-एषा खलु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है-यह (जलकायिक जीवों की हिंसा)
प्रन्थि है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है। ४९. इच्चत्थं गढिए लोए।
सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य जलकायिक जीव-निकाय की हिंसा करता है।
, ५०. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदय-कम्म-समारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिसति ।
सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः उदककर्मसमारम्भेण उदकशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से जल-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर जलकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन जलकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिसा करता है।
५१. से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे ।
सं०-तद् ब्रवीमि ---अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अध्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । मैं कहता हूं जलकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है। शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है।
५२. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । . सं० --अप्येकः पादमाभिन्द्याद, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । .
इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पैर आदि (द्रष्टव्यं १।२८) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है।
५३. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
सं०-अप्येक: संप्रमारयेद्, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है।
भाष्यम् ४०-५३----एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (१७-३०) द्रष्टव्यानि।
पूर्ववत् देखें-सूत्र १७-३० ।
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