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________________ ४८ आचारांगभाष्यम् हेतु:- शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात् । हेतु-क्योंकि वह द्रव है और शस्त्र से उपहत नहीं है। व्याप्ति:-यद् यच्छस्त्रानुपहतं द्रवं, तत्सचेतनमेव । व्याप्ति--जो-जो द्रव शस्त्र से अनुपहत होता है, वह सचेतन उदाहरणं - १. हस्तिशरीरोपादानभूतकललवद् । होता है। २. असंजातावयवस्य अनभिव्यक्तचञ्च्वादिप्रविभागस्य उदाहरण-(१) हाथी के शरीर के उपादानभूत कलल की अण्डकस्य मध्यस्थितकललवच्च । तरह । (२) अनुत्पन्न अवयव वाले और अव्यक्त चोंच आदि विभाग वाले अंडे के मध्यस्थित कलल की तरह। वैज्ञानिकदृष्ट्यापि विमर्शनीयोऽयं प्रश्नः। प्राणवायं वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह प्रश्न विमर्शनीय है । वैज्ञानिक लोग (आक्सीजन) विना जलस्प नोत्पत्तिरिष्यते वैज्ञानिकैः। प्राणवायु (आक्सीजन) के बिना जल की उत्पत्ति नहीं मानते । यह इयं प्राणवायोरनिवार्यता कि जलस्य जीवत्वं न प्राणवायू की अनिवार्यता क्या जल के जीवत्व का समर्थन नहीं करती ? समर्थयति ? श्वासोच्छवासादारभ्य लेश्यापर्यन्तं पृथ्वीकायिकवत श्वासोच्छ्वास से लेश्या तक के विषयों का समवतार पृथ्वी कायिक स्वयमत्रावतारणीयम् । की भांति अप्कायिक में कर लेना चाहिए। ४०. लज्जमाणा पुढो पास । सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तु देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। ४१. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। सं०-अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'–यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-जलकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। ४२. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं उदय-कम्म-समारंभेणं उदय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः उदककर्मसमारम्भेण, उदकशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से जल-सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर जलकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन जलकायिक जीवों को ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। ४३. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान महावीर ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। ४४. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहे । सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवन्दन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए ४५. से सयमेव उदय-सत्थं समारंभति, अण्णेहि वा उदय-सत्थं समारंभावेति, अण्णे वा उदय-सत्थं समारंभंते समण जाणति। सं०–स स्वयमेव उदकशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा उदकशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा उदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते । वह स्वयं जलकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है तथा करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। १. द्रष्टव्यम्-पृष्ठ ३७-४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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