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आचारांगभाष्यम -नात्मनः उत्कर्ष अनुभवेत् न च सचेलान् मुनीन् और न सचेल मुनियों की अवहेलना करे। वृत्ति में इसी संदर्भ की अवमन्येत । अत्र वृत्तौ गाथात्रयं उद्धृतमस्ति'
तीन गाथाएं उद्धृत हैंजोऽवि दुवत्थतिवत्यो एगेण अचेलगो व संथरइ।
'कोई मुनि दो वस्त्र रखता है, कोई तीन वस्त्र, कोई एक ण हु ते हीलंति परं सम्वेऽपि य ते जिणाणाए । वस्त्र और कोई निर्वस्त्र रहता है। वे एक दूसरे की अवहेलना न करें,
क्योंकि वे सब तीर्थकर की आज्ञा में हैं।' जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधिइयादिकारणं पप्प ।
___'जो मुनि संहनन, धृति आदि कारणों से विसदृश आचार वाले णऽवमन्नइ ण य हीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥ हैं, वे न दूसरों की अवमानना करें और न स्वयं को उनसे हीन मानें ।' सम्वेऽवि जिणाणाए जहाविहिं कम्मखवणअट्ठाए ।
'सभी मुनि जिनेश्वर देव की आज्ञा में हैं और वे सब कर्मक्षय विहरंति उज्जया खलु सम्म अभिजाणई एवं ॥ के लिए यथाविधि (अपनी-अपनी विधि के अनुसार) संयम का
पालन करते हुए विहरण करते हैं-ऐसा वह सम्यग्रूप से जानता है। अचेलत्वस्य लाभाः स्थानाने उत्तराध्ययने चापि अचेलत्व के लाभों का निदर्शन स्थानांग और उत्तराध्ययन सूत्र दृश्यन्ते । स्थानांगे यथा
में भी परिलक्षित होता है । स्थानांग में, जैसेपंचहि ठाणेहि अचेलए पसत्ये भवति, तं जहा
पांच स्थानों से अचेलत्व प्रशस्त होता है१. अप्पा पडिलेहा।
१. उसके प्रतिलेखना अल्प होती है। २. लापविए पसत्थे।
२. उसका लाघव प्रशस्त होता है। ३. रुवे बेसासिए।
३. उसका रूप (वेश) विश्वास योग्य होता है। ४. तवे अणुण्णाते।
४. उसका तप अनुज्ञात-जिनानुमत होता है। ५. विउले इंदियनिग्गहे।
५. उसके विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है । तथा चोत्तराध्ययने
उत्तराध्ययन के अनुसारपडिरूवयाए णं भंते जीवे कि जणयइ?
'भन्ते ! प्रतिरूपता-जिनकल्पिक जैसे आचार का पालन
करने से जीव क्या प्राप्त करता है ?' पडिलवयाए णं लावियं जणयइ। लहुभूए णं जीवे 'गौतम ! प्रतिरूपता से वह हल्केपन को प्राप्त होता है । अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्यलिंगे विसुखसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते उपकरणों के अल्पीकरण से हल्का बना हुआ जीव अप्रमत्त, प्रकटलिंग सवपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए वाला, प्रशस्तलिंग वाला, विशुद्ध सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ ।'
समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय रूप वाला, अप्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होता है।
नीयात्, तीर्थकरगणधरोपदेशात ___सम्यक्कुर्यादिति तात्पर्यार्थः ।........
प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः सङ्गत एव च । इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥
तदेवम्भूतं सम्यक्त्वमेव समत्वमेव वा 'समभिजानीयात्' सम्यगाभिमुख्येन जानीयात् --परिच्छिन्द्यात्, तथाहि अचेलोऽप्येकचेलादिकं नावमन्येत ।
(आचारांग वृत्ति, पत्र २२२) कोई मुनि तीन वस्त्र रखता है, कोई दो, कोई एक और कोई निर्वस्त्र रहता है। किन्तु वे एक-दूसरे की अवहेलना नहीं करते, क्योंकि वे सब तीर्थंकर की आज्ञा में विद्यमान हैं। यह आचार की भिन्नता शारीरिक संहनन,
घृति आदि हेतुओं से होती है। इसलिए अचेल रहने वाला सचेल मुनि की अवज्ञा नहीं करता और अपने को उससे उत्कृष्ट भी नहीं मानता। आयारचूला (५-२१) में बतलाया गया है कि वस्त्र की प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाला मुनि यह न कहे--'वे भदन्त मिथ्या प्रतिपन्न हैं, मैं सम्यक् प्रतिपन्न हूं। किन्तु यह सोचे-'हम सब तीर्थकर की आज्ञा के अनुसार संयम का अनुपालन कर रहे हैं।'
यह समत्व का अनुशीलन है। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २२२ । २. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, श२०१। ३. उत्तरज्झयणाणि-२९/सूत्र ४३ ।
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