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आचारांगभाष्यम् भवति । अत एव उपदिशति सूत्रकारः-- य अरति मेधावी नहीं होता। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं--जो अरति का आवर्तेत-निवर्तेत, स मेधावी भवति ।'
निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है। २८. खणंसि मुक्के।
सं०-क्षणे मुक्तः । वह क्षणभर में मुक्त हो जाता है ।
भाष्यम् २८----अरतिनिवर्तनस्य फलमिदम् —अहो- अरति के निवर्तन का यह फल है.-अहोविहार में रमण करने विहारे रममाण: सर्वकामेभ्य: बन्धनेभ्यश्च क्षणमात्रेण वाला साधक भरत चक्रवर्ती की तरह क्षणमात्र में सभी कामनाओं और भरतवन् मुक्तो भवति ।
बंधनों से मुक्त हो जाता है । २६. अणाणाए पुट्ठा वि एगे णियति ।
सं०-अनाज्ञायां स्पृष्टाः अपि एके निवर्तन्ते । अनाज्ञा में वर्तमान कुछ साधु कामना से स्पृष्ट होकर वापस घर में भी चले जाते हैं।
भाष्यम् २९-आत्मभावः आत्मज्ञानं वा आज्ञा, आज्ञा का अर्थ है आत्मभाव, आत्मज्ञान या अर्हतों का उपदेश । अईतां उपदेशो वा। अनात्मभावः अनाज्ञा । तस्यां अनाज्ञा अर्थात् अनात्मभाव । अनात्मभाव में रमण करने वाले स्वच्छंदवर्तमानाः स्वच्छन्दविहारिण: एके कामनादिस्पृष्टाः विहारी कुछेक मुनि कामनाओं के वशवर्ती होकर पुनः गृहवासी बन निवर्तन्ते-पुनरपि गृहवासिनो भवन्ति ।
जाते हैं। ३०. मंदा मोहेण पाउडा ।
सं०-मन्दाः मोहेन प्रावृताः । मन्दमति मनुष्य मोह से अतिशय रूप में आवृत होते हैं।
भाष्यम् ३० -पुनर्गहगमनस्य कारणद्वयं निर्दिष्टम
प्रस्तुत सूत्र में प्रव्रज्या को छोड़कर पुनः गृहवास में जाने के दो मन्दत्वं मोहप्रावरणञ्च। ये मन्दा भवन्ति, मोहेन- कारण निर्दिष्ट हैं--मति की मंदता और मोह का सघन आवरण । जो प्रावता भवन्ति, ते अहोविहारं प्रतिपद्यापि पुनस्ततो मंद होते हैं और मोह से सघनरूप में आवृत होते हैं वे अहोविहार निवर्तन्ते । बुद्धेः मन्दतायां अपायस्यावबोधो न जायते। (संयम) को स्वीकार करके भी उसे छोड़ देते हैं। बुद्धि की मंदता में तेन मळ द्विगणा भवति । सत्यपि मोहे यदि चिन्तनं अपाय (दोष) का अवबोध नही होता। उससे मूर्छा दुगुनी हो जाती प्रग स्यात तदा मोहोपशान्तिरपि सुकरा भवति । है। मोह के होने पर भी यदि चिंतन उचित हो तो मोह की उपशांति
सहजता से की जा सकती है।
३१. अपरिग्गहा भविस्सामो समुट्ठाए, लद्धे कामेहिगाहंति।
सं०-- अपरिग्रहाः भविष्यामः समुत्थाय, लब्धान् कामान् अभिगाहन्ते । कुछ पुरष हम अपरिग्रही होंगे---इस संकल्प से प्रवजित हो जाते हैं, फिर प्राप्त कामों में निमग्न हो जाते हैं।
१. संयम में रति और असंयम में अरति करने से चैतन्य और
आनन्द का विकास होता है। संयम में अरति और असंयम में रति करने से उसका ह्रास होता है, इसलिए साधक को यह निर्देश दिया है कि वह संयम में होने वाली अरति
का निवर्तन करे। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ५८ : अणाणा जहा अभि
लसिता अहितपबित्ती। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १०२ : आज्ञा-हिताहितप्राप्ति
परिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशः, तद् विपर्ययः अनाजा। (ग) आप्टे, आज्ञा-to know, understand, per
ceive etc.
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