SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०२. लोकविचय, उ०१-२. सूत्र २०-२७ ९७ समस्याः नायान्ति।' तेन अनभिक्रान्तवयसो वैशिष्ट्य- सम्बंधी समस्याएं नहीं आतीं, इसलिए अभिक्रांत वय की अपेक्षा अनमस्ति । भिक्रांत वय की विशिष्टता है। २४. खणं जाणाहि पंडिए! सं०-क्षणं जानीहि पंडित! हे पंडित ! तू क्षण को जान । भाष्यम् २४.---हे पण्डित ! क्षणं जानीहि । अनभि- हे पण्डित ! तू 'क्षण' को जान । अनभिक्रांत अवस्था (प्रथम क्रान्तं वयः अहोविहारस्य क्षणो भवति । इन्द्रिय- और द्वितीय अवस्था) अहोविहार का 'क्षण' होती है। इंद्रियक्षमता क्षमता अपि क्षणः अस्ति । क्षेत्रकालनक्षत्राद्यनुकूलता भी 'क्षण' है । क्षेत्र, काल, नक्षत्र आदि की अनुकूलता और कर्म का कर्मक्षयोपशमोऽपि च क्षणोऽस्ति । त्वं समग्रदृष्ट्या क्षयोपशम भी 'क्षण' है । तू समग्रदृष्टि से 'क्षण' का पर्यालोचन कर। क्षणस्य पर्यालोचनं कुरु। २५. जाव सोय-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव णेत्त-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव घाण-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव जीह पण्णाणा अपरिहीणा, जाव फास-पण्णाणा अपरिहीणा । सं०-यावत् श्रोत्रप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् नेत्रप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् घ्राणप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् जिह्वाप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् स्पर्शप्रज्ञानानि अपरिहीनानि । जब तक श्रोत्र का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक नेत्र का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक घ्राण का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक जिह्वा का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक स्पर्श का प्रज्ञान पूर्ण है२६. इच्चेतेहि विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयर्से सम्म समणुबासिज्जासि ।-त्ति बेमि । सं.-इत्येतैः विरूपरूपः प्रज्ञानः अपरिहीनः आत्मार्थं सम्यक् समनुवासयेः । -इति ब्रवीमि। इन नानारूप प्रज्ञानों के पूर्ण रहते हुए आत्महित का तू सम्यक् अनुशीलन कर। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २५-२६ ---क्षणमेव विशिनष्टि सूत्रकार:--- सूत्रकार क्षण की ही विशेषता बतला रहे हैं-जब तक श्रोत्र, यावत् श्रोत्र-नेत्र-घ्राण-जिह्वा-स्पर्श-प्रज्ञानानि अपरिही- नेत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन-इन पांचों इंद्रियों की ज्ञानशक्ति नानि तावदात्मार्थं सम्यक समनुवासये:-अहोविहारेण क्षीण नहीं हुई है, तब तक आत्मा को सम्यक अनुवासित कर अर्थात् आत्मानं भावयेः। अहोविहार--संयम से अपने आपको भाबित कर । बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक २७. अरई आउट्टे से मेहावी। सं०-अरतिमावर्तेत स मेधावी । जो अरति का निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है। भाष्यम् २७-रति: अरतिश्च सापेक्षौ शब्दौ। य रति और अरति-ये दोनों सापेक्ष शब्द हैं । जो अहोविहारअहोविहारं प्रतिपद्यापि तत्र न रमते स मेधावी न हि संयम को स्वीकार करने के बाद भी उसमें रमण नहीं करता वह १. द्रष्टव्यम-क्रमश: २१७,१६,२० भाष्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy