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________________ अ० ५. लोकसार, उ०२. सूत्र २१-२३ २४६ भवितुमर्हति ।' क्षणशब्द: मध्यार्थकोऽपि वर्तते।' यः प्रति जागरूक रहता है, वह संयत अथवा अप्रमत्त हो सकता है। अस्य शरीरस्य 'मध्यं' मध्यवत्ति चैतन्यकेन्द्रं वा पश्यति, 'क्षण' शब्द का अर्थ 'मध्य' भी है। जो इस शरीर के 'मध्य' को स संयतो वा अप्रमत्तो वा भवितुमर्हति । अथवा मध्यवर्ती चैतन्यकेन्द्र को देखता है, वह संयत अथवा अप्रमत्त हो सकता है। २२. एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते । सं०--एषः मार्गः आर्यः प्रवेदितः । यह मार्ग तीर्थंकरों ने बताया है। भाष्यम् २२-एष: अप्रमादमार्गः आर्यः प्रवेदितः ।। यह अप्रमाद का मार्ग तीर्थंकरों ने बताया है। २३. उट्टिए णो पमायए। सं०-उत्थितः नो प्रमाद्येत् । पुरुष उत्थित होकर प्रमाद न करे। भाष्यम् २३-अप्रमादस्य साधनायां उत्थितः पुरुषः अप्रमाद की साधना में उत्थित होकर पुरुष प्रमाद न करे । न प्रमाद्येत् । उत्थितोऽपि पुरुषः तदनुरूपपुरुषकारपरा- उत्थित होकर भी पुरुष उसके अनुरूप पुरुषकार और पराक्रम के अभाव क्रमाऽभावे पुनः अनुत्थितो भवति । तेन अत्यन्तं में पुनः अनुत्थित हो जाता है । इसलिए यह उपदेश अत्यंत उपयोगी है । उपयोगी एष उपदेशः । यावद् मोहकर्मणः क्षयोपशमो जब तक मोहकर्म का क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब तक अप्रमाद विद्यते तावद् अप्रमादः स्थिति नाप्नोति । तस्य उदय- स्थिरता को प्राप्त नहीं होता। उसके उदय और अनुदय का क्रम विलययोः क्रमः प्रवर्तते । सरितः सलिलतलमवगाहमानः चलता रहता है। नदी के पानी में अवगाहन करने वाला पुरुष जब पुरुषः कराभ्यां जलकुम्भी प्रेरयति तदा भवति आकाश- अपने हाथों से शैवाल को इधर-उधर हटाता रहता है तब उसे आकाश दर्शनम् । विश्रान्तयोः करयोः पुनः जलकुम्भी प्रसृमरा दिखाई देता है। जब वह हाथों को विश्राम देता है तब शैवाल पुनः भवति अवरुद्धं च आकाशदर्शनम् । अनया प्रणाल्या पानी पर छा जाती है और आकाश का दिखना बंद हो जाता है । इसी अप्रमाददशायां मोहकर्मण: क्षयोपशमः सक्रियो भवति, प्रणाली से अप्रमाद दशा में मोहकर्म का क्षयोपशम सक्रिय होता है तब संभवति च आत्मदर्शनम्। प्रमाददशायां तु स जायते आत्म-दर्शन संभव होता है। प्रमाद दशा में वह क्षयोपशम निष्क्रिय निष्क्रियः, अवरोधमुपैति च आत्मदर्शनम्। हो जाता है, तब आत्म-दर्शन अवरुद्ध हो जाता है । 'यत्र प्रमादः तत्र भयम्' इति व्याप्तिः । 'सव्वओ 'जहां प्रमाद है वहां भय है'-- यह व्याप्ति है। भगवान् ने पमत्तस्स भयं' इत्युक्तमस्ति भगवता। तेन प्रमादो कहा है--प्रमादी पुरुष को सर्वत: भय रहता है । इसलिए प्रमाद का १. आचारांग वृत्ति, पत्र १८५: विग्रहः-औदारिकं शरीरं वाली चैतन्य को धारा को अंतर की ओर प्रवाहित करने तस्य अयं वार्त्तमानिकक्षणः एवम्भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च का प्रथम साधन स्थूल शरीर है। इस स्थूल शरीर के गतः एवम्भूतश्च भावीत्येवं यः क्षणान्वेषणशीलः सोऽन्वेषी भीतर तैजस और कर्म---ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। उनके सदाऽप्रमत्तः स्यादिति । भीतर आत्मा है । स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदनों २. आप्टे, क्षणः Center, middle. को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तेजस और कर्म३. महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप अप्रमाद है। शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ अप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय निर्दिष्ट हैं, उनमें शरीर की अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में क्रिया और संवेदना को देखना मुख्य उपाय है । जो साधक प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की लग जाता है। जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, की ओर आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढता वह अप्रमत्त हो जाता है। जाता है। यह शरीर-दर्शन की प्रक्रिया अंतर्मुख होने की ४. द्रष्टव्यम्-आयारो, २१४७, ११९ । प्रक्रिया है। सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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