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आचारांग भाष्यम्
प्रदेशानां संहतिस्थानानि हठयोगादावपि ध्यानाधार और चैतन्य प्रदेशों की सघनता के स्थल ध्यान के आधार रूप में रूपेण सन्ति सम्मतानि ।'
मत हैं।
२१. जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति मन्नेसी ।
सं० यः अस्य विग्रहस्य अयं क्षणः इति अन्वेषी ।
'इस शरीर का यह वर्तमान क्षण है', इस प्रकार अन्वेषण करने वाला अप्रमत्त होता है।
भाष्यम् २१ – इदमस्ति ध्यानसूत्रम् । यः अस्य शरीरस्य अयं क्षणः इति अन्वेषयति- प्रतिक्षणं जायमानं सुखदुः दुःखादिसंवेदनं प्रति जागति, स संयतो वा अप्रमत्तो
(ख) संहिता, शारीरस्थानम् ६ तान्येतानि पञ्चविकल्पानि भवन्ति तद्यथा सद्यःप्रामाणि कालान्तरप्राणहराणि विशयनानि वैकल्यराणि, रुजाकराणि चेति ।
(ग) वही शारीरस्थानम् ६०९
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गान्यधिपतिः शंख कंठसिरा गुदम् । हृदयं वस्तिनाभीच घ्नन्ति यो तानि तु ॥
(घ) बहो, शारीरस्थानम्, ६.१५ वर्माणि नाम मांसशिस्नाव्य स्थिसन्धिसन्निपाताः तेषु स्वभावत एव विशेषेण प्राणास्तिष्ठन्ति तस्मान्मम स्वभिहतास्तांस्तान् भावानापद्यन्ते ।
अल्पमांस
(ङ) नही, शारीरस्थानम् ६२५ तत्र बातययोंनिरसनं स्थूलान्त्रप्रतिबद्धं गुदं नाम मर्म । शोणितोऽभ्यन्तरतः कट्यां मूत्राशयो वस्तिः । पक्वामाशययोमंध्ये सिराप्रभवा नाभिः । स्तनयोः ष्ठावरयामासपारं सत्वरजस्तमसामधिष्ठानं हृदयम् ।"
(च) वही शारीरस्थानम् ६२० तत्र कण्ठनाडीतश्चतस्रो धमन्यो द्वे नीले द्वे च मत्ये
कर्ण पृष्ठतोऽधः संश्रिते विधुरे" "। घ्राणमार्गमुभयतः स्रोतोमार्ग प्रतिबद्ध अभ्यन्तरतः फणे पुच्छान्तयोरधोऽक्ष्णोः बाह्यतोया...... वोरन्तयोरुपरि कर्णललाटयोमध्ये शङ्ख े,
प्राक्षिजिह्वा संतपंथीनां सिराणां मध्ये विशसन्निपात श्रृंगाटकानि तानि चत्वारि मर्माणि..... मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् सिरासन्धिसन्निपातो रोमावर्तोऽधिपतिः ।
पृष्ठ
(घ) मुतसंहिता शारीरस्थानम् ६।२७, ३३१, पं० लालचन्द्र वैद्यकृत विशेष मन्तव्यअधिपतिमर्म --- यह शिर के भी सबसे ऊपर शिखर पर का मर्म है । इसका सूचक शिर पर बाहर रोमावर्त्त (भौरी, बालों का आवर्त) होता
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प्रस्तुत आलापक ध्यान सूत्र है। जो साधक 'इस शरीर का यह वर्तमान क्षण है' इस प्रकार जो अन्वेषण करता हैप्रतिक्षण शरीर के भीतर होने वाले सुख-दुःख आदि संवेदनों के
है। इसमें आने वाली एक शिरा अवष्य मानी गई है । इसके ऊपर की अस्थि में छिद्र रहता है, जो ब्रह्मरन्ध्र कहलाता है। परंतु यह एक वर्ष व्यतीत होने पर बाल्यावस्था में ही पूर्ण हो जाता है । सद्योजात शिशु के शिर पर हाथ रखने से इसमें सिरा (धमनी) का स्पन्दन (धमन) प्रतीत होता है। इसका अर्थ है- 'अधिकृत्य पाति रक्षति इति अधिपतिः ।' इस अवयव को अधिकृत्य करके आत्मा शरीर का रक्षण करता है। यही पुराणों का ब्रह्मलोक, वैष्णव पुराणों का विष्णुलोक या बैकुण्ठ तथा शैवपुराण-प्रत्थोक्त शिवलोक या कैलाश है और गीता का ऊर्ध्वमूल है, अधःशाख शरीर का ऊपर की ओर वर्तमान मूल जड जीवन हेतु है । योगशास्त्र में शिर के पिछले कपाल के अन्दर में स्थित केन्द्र को शिवरन्ध्र माना है। परंतु यह शैवों का विचार है, वे उसी को जीवन का केन्द्र मानते हैं। इन २३ मर्मों से युक्त समस्त शिर को ही ममं समझना चाहिए। शिर का पर्याय उत्तमांग है, उसके लिए भगवान् पुनर्वसु ने लिखा है :
प्राणाः प्राणभृतां यत्र, स्थिताः सर्वेन्द्रियाणि च । तदुत्तमगमगाना, शिरस्तदभिधीयते ॥ (ज) चरक ( च० सि. अ. ९१६) में लिखा है - १०७ मर्म होते हैं। उनका पीडन अभिहनन होने से प्राणी को बहुत अधिक पीडा का ( अन्य स्थलों की अपेक्षा अधिक) अनुभव होता है क्योंकि उन मम में प्राणों का विशेष रूप से अनुबन्ध-सम्बन्ध होता है । शाखाश्रित मर्मों की अपेक्षा स्कंध अर्थात् अंतराधि के मर्म विशेष महत्त्व रखते हैं। उनमें भी हृदय पत्ति तथा सिर (वा समेत शिर-२३ ममों का अधिष्ठान) अत्यंत महत्व रखते हैं, क्योंकि समस्त शरीर इन्हीं तीनों के अधीन है । १. याज्ञवल्क्य गीता
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