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अ० ६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा २-४
वासो जातः । एकदा - ऋतुबद्धे काले' श्मशाने - श्मशानस्य पार्श्वे ।
४. एहि मुणी सह, समणे आसी पतेरस वासे । राई दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति || सं० -- एतेषु मुनिः शयनेषु, श्रमणः आसीत् प्रत्रयोदशवर्षम् । रात्रि दिवा अपि यतमानः, अप्रमत्तः समाहितः ध्यायति । भगवान् साधनाकाल के उत्कृष्ट तेरह वर्षों में इन वास-स्थानों में प्रसन्नमना रहते थे। वे रात और दिन स्थिर और एकाग्र तथा अप्रमत्त रह कर समाहित अवस्था में ध्यान करते थे ।
भाष्यम् ४ एतेषु निर्दिष्टेषु शयनेषु तथा अन्येष्वपि शैलगृहादिषु श्रमण भगवान् महावीरः । अथवा समना: - सममनाः । पतरेस वासे प्रत्रयोदशवर्षं प्रकर्षेण त्रयोदशवर्षं यावत् । रात्रौ दिवापि यतमानः भगवान् यथा दिवा' तथा रात्रौ सर्वदा यतमान:मनोवाक्कायैः एकाग्रः, अप्रमतः- जितेन्द्रियः कषायरहितश्च समाहितः सन् धर्मं शुक्लं वा ध्यायति ।
अस्थानुसारी उपदेश:
'अलं कुसलस्स पमाएणं । "
'संति मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए ।"
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'पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिब्वए ।"
'अहो य राओ य जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे । पमत्ते बहिया पास, अप्पमते सया परक्कमेज्जासि ।"
वा
१. अत्र चूर्णिपरम्परा – अयं तु विसेसो—गामे एगरतं नगरे पंचरतं, एवं उदुबद्धे, वासासु नियमा चत्तारि मासे वासो, गामादीनं पुण कमाई अंतो का माह मा । ( आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३१२) २. श्मशानादिविषये बूर्णिपरम्परा सबसणं सुसाणं सुलगा सुन्न अवारं सुन्नागार हवा धमात्थ पुष्कफलाई नपति, एगतत्ति उडुबद्धे, न तु वस्सासु, सुसाणरुक्खस्स तले वा वसति, सुन्नागारं वा जं न गलति । ( आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१२ ) ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१२ : समणेत्ति स एव वद्धमाणसामी, अहवा ते पवातनिवातसमसिमे सोच निरुवसग्ये वसतिसु समन एव आसी अतो समणे, न्हा दुखासी तहा तहा मिसतरं समण आती। ४. वही, पृष्ठ ३१२ पगतं पत्थियं वा तेरसमं वरिसं जेसि वरिसाणं ताणिमाणि पतेरसवरिसाणि छउमत्थकाले ।
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नगर में भी रहते थे। एकदा का अर्थ है— ऋतुबद्धकाल में। यहां श्मशान का तात्पर्य है - श्मशान के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में ।
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भगवान् इन निर्दिष्ट वास स्थानों में तथा अन्य पर्वतीय आवासों पर्वत पर उत्कीर्ण भवन, गुफा आदि में भी रहते थे । श्रमण अर्थात् — श्रमण महावीर अथवा समतायुक्त मन वाले पतरेस वासे का अर्थ है - उत्कृष्ट तेरह वर्ष । भगवान् रात में और दिन में भी यतमान रहते थे। जिस प्रकार दिन में उसी प्रकार रात में सदा यतमान अर्थात् मन, वचन और शरीर को स्थिर और एकाग्र कर अप्रमत्त अर्थात् इन्द्रियों को शांत कर कवायसून्य होकर समाहित अवस्था में धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान में तन्मय हो जाते थे ।
संवादी उपदेश
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'कुशल प्रमाद न करे ।'
'शांति और मरण की संप्रेक्षा करने तथा अनित्य शरीर की संप्रेक्षा करने पर अप्रमाद की वृद्धि होती है ।'
'सुप्त मनुष्यों को आतुर देखकर जागृत पुरुष निरन्तर अप्रमत
रहे।'
'दिन-रात यत्न करने देखता है कि जो प्रमत्त हैं, वे होकर सदा पराक्रम करे ।'
वाला और सदा लब्धप्रज्ञ वीर साधक धर्म से बाहर हैं। इसलिए वह अप्रमत्त
५. वही, पृष्ठ ३१२-३१३ : जहा रति तहा दिवा, उभयग्गहणमवि सामत्यं ण तु जहा अन् याणमोणादीए जला रति सारक्खणत्थं गिद्दं भजंति, सो तु भगवं जहा दिवा तहा रात पि जयमाणेत्ति मणोवाक्काएहिं एगग्गो अप्पमत्त इति जितिदियो कसायरहितो, कहं ? मम एवे पमादा ण भविज्ज, ठाणाइएसु अप्पमत्ते ज्झाणे य, सम्मं आहितो समाहितो धम्मे सुपके पति भगवं
६. आचारांग वृत्ति, पत्र २७९ : यतमानः संयमानुष्ठान ज्युक्तवान् तथाऽप्रमत्ती निद्राविप्रमादरहितः 'समाहित मना' विस्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्यायतीति ।
७. आयारो, २।९५ ।
८.
वही, २९६ ।
९. वही, ३।११।
१०. वही, ४।११।
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