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________________ आचारांगभाष्यम् १५. जामा तिण्णि उवाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्टिया। सं०-यामाः त्रय उदाहृताः, येषु इमे आर्याः संबुध्यमानाः समुत्थिताः । तीन याम ---अवस्थाएं बतलाई हैं । आर्य मनुष्य संबोधि को प्राप्त कर उन अवस्थाओं में प्रवजित होते हैं। भाष्यम् १५-यथा धर्माराधनाविषये ग्रामारण्यकृतो जैसे धर्म की आराधना के विषय में ग्राम और अरण्य का भेद भेदः प्रचलित आसीत् तथा प्रव्रज्याकालविषयेऽपि उस समय प्रचलित था, वैसे ही प्रवज्या-काल [दीक्षा-काल] के विषय विधे नत्वमासीत् । तत्र भगवता प्रव्रज्यां लक्ष्यीकृत्य में भी नाना विधान थे। भगवान् महावीर ने प्रव्रज्या को लक्षित कर त्रयो यामाः–वयोविभागाः सन्ति उदाहृताः ।' चूर्ण्यनु- तीन याम-वयोविभाग प्रतिपादित किए हैं। चूणि के अनुसारसारम् -अष्टवर्षादारभ्य त्रिंशद्वर्षपर्यन्तं प्रथमो यामः। आठ वर्ष से तीस वर्ष तक पहला याम, तीस वर्ष से साठ वर्ष तक त्रिंशद्वर्षादारभ्य षष्टिवर्षपर्यन्तं मध्यमो यामः । ततः मध्यम याम और उससे आगे जीवन पर्यन्त तीसरा याम । इन तीनों परंततीयो यामः । एषु त्रिष्वपि यामेषु आर्याः संबुध्य- यामों-अवस्थाओं में आर्य पुरुष संबोधि को प्राप्त कर संयम ग्रहण के माना: संयमसमुत्थानेन समुत्थिता भवन्ति, प्रव्रजन्तीति लिए तत्पर होते हैं अर्थात् प्रवजित होते हैं, यह इसका तात्पर्य है। तात्पर्यम्। प्रस्तुतसूत्रे प्रव्रज्याकालमपेक्ष्य वयोविभागाः कृताः। प्रस्तुत आलापक में प्रव्रज्या-काल की अपेक्षा से अवस्था के सन्ति । अस्यानुसारेण अष्टवर्षात् परं बालो प्रव्रज्या- विभाग किए गये हैं। इसके अनुसार आठ वर्ष की अवस्था के मईति। ततो निम्नं अतिबालावस्था, सा नास्ति बाद बालक दीक्षा लेने के योग्य हो जाता है। उससे कम अति बचपन प्रव्रज्यात्। की अवस्था होती है । वह प्रव्रज्या के योग्य नहीं होती। इत्थ अतिबाल अतिवृद्धा पडिसिद्धा, सेसा अणुण्णाता। जैन शासन में अति बालक और अति वृद्ध की दीक्षा निषिद्ध है। शेष अवस्थाओं की प्रव्रज्या अनुज्ञात है। सप्ततिवर्षतः ऊर्ध्वं वृद्धत्वं सम्मतम् । सत्तर वर्ष से आगे वृद्धावस्था मानी गई है। १६. जे णिव्या पावेहि कम्मेहि, अणियाणा ते वियाहिया। सं०-ये निर्वृत्ताः पापेषु कर्मसु, अनिदानाः ते व्याहृताः। जो हिंसा आदि पाप-कर्म करने में उपशांत होते हैं, वे अनिदान कहलाते हैं। माध्यम १६-निदानं - बन्धनम। द्रव्यतो माता- निदान का अर्थ है--बन्धन। उसके दो प्रकार हैं-द्रव्य पित्रादि धनधान्यादि च भावतः विषयकषायो। न निदानं निदान और भाव निदान । द्रव्य निदान है-माता-पिता आदि तथा येषां ते अनिदानाः । अनिदानाः बन्धनमुक्ता इति यावत्। धन-धान्य आदि। भाव निदान है-इन्द्रिय-विषय तथा कषाय । न केवलं प्रव्रज्यामात्रेण अनिदाना भवन्ति केचित् । ये जिनके कोई निदान नहीं होता, वे अनिदान होते हैं । तात्पर्य की भाषा पापेषु कर्मसु हिंसाद्यनुष्ठानेषु निवृत्ता:-- उपशान्ता में अनिदान अर्थात् बंधनमुक्त । कुछ मनुष्य केवल प्रव्रज्या लेने मात्र से भवन्ति त एव वस्तुतः अनिदाना भवन्ति । ही अनिदान नहीं हो जाते । जो पाप-कर्म तथा हिंसा आदि प्रवृत्तियों से निवृत्त हो जाते हैं, उपशान्त हो जाते हैं, वे ही वस्तुतः अनिदान होते हैं। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५८ : जामोत्ति वा वयोत्ति वा वृद्धयोर्युदासो, यदिवा यम्यते-उपरम्यते संसारएगट्ठा। भ्रमणादेभिरिति यामाः-ज्ञानदर्शनचारित्राणीति ।' २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २५८ : तत्थ भगवं पढमे जामे ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५८ । संबुद्धो, गणहरा केइ पढमे केइ मजिसमे। (ख) वृत्तौ (पत्र २४४) यामपवस्य त्रयोर्थाः कृताः सन्ति, ४. (क) द्रष्टव्यम्-आयारो, २४ भाष्यस्य टिप्पणम्, यामा व्रतविशेषाः त्रय उदाहृताः, तद्यथा ८।३० सूत्रं च। प्राणातिपातो मृषावादः परिग्रहश्चेति, अदत्तादान (ख) शतवर्षीय जीवन की बस अवस्वाएं होती हैं। यहां मैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावात् त्रयग्रहणं, यदिवा यामाः दीक्षा योग्य अवस्थाएं विवक्षित हैं। प्रथम अवस्था वयोविशेषाः, तद्यथा-अष्टवर्षावात्रिंशतः प्रथमस्तत आठ वर्ष से तीस वर्ष तक, द्वितीय अवस्था इकतीस ऊर्ध्वमाषष्टेः द्वितीयस्तत ऊवं तृतीय इति, अतिबाल वर्ष से साठ वर्ष तक तथा तृतीय अवस्था इकसठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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