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अ०८. विमोक्ष, उ० १. सूत्र १५-१६ १७. उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, सव्वतो सब्वावंति च णं पडियक्कं जीवेहि कम्मसमारंभे गं। .
सं.-ऊर्ध्वमधः तिर्यग् दिशासु सर्वतः 'सव्वावंति' च प्रत्येकं जीवेषु कर्मसमारम्भः । ऊंची, नीची व तिरछी आदि सब दिशाओं में, सब प्रकार से जीवों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्म-समारम्भ किया जाता है।
भाष्यम् १७-ऊर्ध्वमादिषु सर्वासु दिशासु सर्वतः ऊंची-नीची आदि सब दिशाओं में सर्वतः-सदा सव्वावंतिइति सर्वकालं, सव्वावंति-सर्वभावेन प्रत्येकं जीवेषु कर्म- सब प्रकार से जीवों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्म-समारंभ किया समारम्भः प्रवर्तते । अनेकेषु श्रमणेषु चापि पचनपाच- जाता है। अनेक श्रमणों में भी पचन-पाचन आदि कर्म का समारंभ नादिकर्मसमारम्भः प्रबर्तमानः आसीत् ।' तं लक्ष्यीकृत्य होता था। उस कर्म-समारंभ को लक्षित कर भगवान् ने जो निरूपण भगवता यन्निरूपितं तदेव अग्रिमसूत्रे प्रतिपादितमस्ति। किया वही अगले सूत्र में प्रतिपादित है ।
१८. तं परिण्णाय मेहावी व सयं एतेहिं काएहि वंडं समारंभेज्जा, णेवण्णेहि एतेहिं काएहिं दंड समारंभावेज्जा, नेवण्णे
एतेहि काएहि दंडं समारंभंते वि समणजाणेज्जा। सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं एतेषु कायेषु दण्डं समारभेत, नैवान्यः एतेषु कायेषु दण्ड समारम्भयेत्, नैवान्यान् एतेषु कायेषु दण्डं समारभमाणान् अपि समनुजानीयात् । मेधावी उस कर्म-समारम्भ का विवेक कर इन सूक्ष्म जीव-कायों के प्रति स्वयं दंड का प्रयोग न करे, दूसरों से न करवाए और करने वालों का अनुमोदन न करे।
भाष्यम १८-मेधावी तं कर्मसमारम्भं परिज्ञाय एतेषु मेधावी मुनि उस कर्मसमारंभ का विवेक कर इन पृथिवी प्रथिव्यादिकायेषु त्रिकरणयोगेन दण्डसमारम्भं परित्यजे- आदि जीव-निकायों के प्रति तीन करण, तीन योग से दंड-समारंभ दिति हदयम । एष मुनेराचारः। स अहिंसामहाव्रतस्य का परित्याग करे। यही इसका हार्द है। यह मुनि का आचार है। साधनायै समपितो भवति। तेन त्रिकरणयोगेन कर्म- मुनि अहिंसा महाव्रत की साधना के लिए समर्पित होता है। उसने समारम्भः परित्यक्तः। ईदृशी साधना अहिंसां प्रति तीन करण और तीन योग से कर्म-समारंभ का परित्याग किया है। समर्पितस्यैव जनस्य कृते संभवति, नान्यस्य ।
ऐसी साधना अहिंसा के प्रति समर्पित व्यक्ति के लिए ही संभव है, दूसरे के लिए नहीं।
१६. जेवण्णे एतेहिं काएहि वंडं समारंभंति, तेसि पि वयं लज्जामो। सं०-येऽप्यन्ये एतेषु कायेषु दण्डं समारभन्ते तेषामपि वयं लज्जामहे । जो भिक्षु इन सूक्ष्म जीव-कायों के प्रति बंड का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति भी हम क्या प्रदर्शित करते हैं। भाष्यम १९-ये चाप्यन्ये भिक्षवः एतेषु पृथिव्यादि- जो अन्य भिक्षु इन पृथिवी आदि जीव-निकायों के प्रति दंड
वर्ष से जीवन-पर्यन्त की होती है। परिव्राजक बीस १. बौद्ध भिक्षु स्वयं भोजन नहीं पकाते थे, किन्तु दूसरों से वर्ष से कम अवस्था वाले को प्रवजित नहीं करते पकवाते थे। विहार आदि का निर्माण करते और करवाते ये । वैविक लोग अंतिम अवस्था में संन्यास प्रहण
थे, मांस खाते थे और उसमें दोष नहीं मानते थे। कुछ करते थे। बुद्ध ने तीस वर्ष से कम उम्र वालों को भिक्षु संघ के निमित्त हिंसा करने में दोष नहीं मानते थे। उपसम्पदा [वीक्षा] देने का निषेध किया है कछ भिक्षु वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते थे। कुछ [विनय-पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय ६५] । भिक्षु औद्देशिक आहार नहीं लेते थे, किन्तु सचित्त जल किन्तु कौआ उड़ाने में समर्थ पन्द्रह वर्ष से कम उम्र पीते थे। कुछ भिक्षु सचित्त जल पीते थे किन्तु उससे स्नान के बच्चे को श्रामणेर बनाने की अनुमति दी है
नहीं करते थे। प्रस्तुत सूत्र (१७) इन परम्पराओं की ओर [विनत-पिटक, महावग्ग, महास्कन्धक ११३८] ।
इंगित करता है। किन्तु जैन परम्परा में दीक्षा की योग्यता आठ २. सुब्व्यत्ययेन तृतीया षष्ठी। वर्ष और तीन मास की अवस्था के बाद स्वीकृत थी।
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