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________________ अ०४. सम्यक्त्व, उ० २. सूत्र २१-२६ -२१६ हम इस प्रकार कहते हैं-किसी भी प्राणी का वध नहीं करना चाहिए। -भाष्यम् २३--वयमेवं वदामः-कस्यापि प्राणिनो प्राणना वधो न कार्यः । २४. आरियवयणमेयं । सं०-आर्यवचनमेतत् । यह आर्यवचन है। सूत्रकार कहते हैं—यह अहिंसा का प्रवर्तक आर्यवचन है। भाष्यम २४ --सूत्रकारो वक्ति-एतद् अहिंसायाः प्रवर्तक आर्यवचनमस्ति ।' २५. पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पुच्छिस्सामो-हंभो पावादुया! किं भे सायं दुक्खं उदाहु असायं ? सं0--पूर्व निकाच्य समयं प्रत्येक प्रक्ष्यामः हंहो प्रावादुकाः ! किं युष्माकं सातं दुःखं उताहो असातम् ? सर्वप्रथम दार्शनिकों को अपने-अपने सिद्धान्तों में स्थापित कर हम पूछेगे हे दार्शनिको ! क्या आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? भाष्यम् २५--अहिंसायाः सिद्धान्ते प्रतिपादितेऽपि अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने पर भी यदि अविद्वान् यदि अविद्वांसः पुरुषाः तं न सम्यक् प्रतिपद्येरन् तदा तत्र व्यक्ति उसको सम्यक् प्रकार से स्वीकार नहीं करते हैं तो वहां उपेक्षा उपेक्षा कर्तव्या। यदि विद्वत्परिषत् स्यात्तदा वाद: करनी चाहिए । यदि विद्वत् परिषद् हो तो वहां 'वाद' की स्थापना स्थापनीयः। तस्यायं क्रमः-पूर्व प्रतिवादिनः समयं करनी चाहिए। उसका क्रम यह है—पहले प्रतिवादी दार्शनिकों को निकाच्य–युष्माभिः सद्भाव: आख्यातव्यः, न तु यह शपथ दिला कर कि 'आप यथार्थ कहेंगे, अयथार्थ नहीं', अथवा असद्भावः इति शपथं कारयित्वा अथवा प्रतिवादिनः उनको अपने-अपने सिद्धान्तों में स्थापित कर प्रश्न उपस्थित करना स्वाभिमते सिद्धान्ते स्थापयित्वा प्रश्नः उपस्थापनीयः- चाहिए-हे दार्शनिको ! क्या आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? ऐसा हंहो ! प्रावादुकाः ! किं युष्माकं दुःखं प्रियं अथवा पूछने पर यदि वे दार्शनिक कहें कि हमें दुःख प्रिय है तो उनके अप्रियम् ? एवं पृष्टाः प्रावादुकाः ब्रूयुः-अस्माकं दुःखं सिद्धान्त का निरसन यह कह कर कर दिया जाए कि आपकी बात प्रियं, ततः प्रत्यक्षागमलोकबाधाभिः सिद्धान्तोऽयं प्रत्यक्ष ही आगम-विरुद्ध है, लोक विरुद्ध है। यदि वे कहें-'हमें दुःख निरसनीयः । यदि ते वदेयु:-'अस्माकं दुःखमप्रियं' अप्रिय है' तबतदा२६. समिया पडिवन्ने यानि एवं व्या-ससि पाणाणं सवेसि भूयाणं सवसि जीवाणं सवसि सत्ताणं असावं अपरिणिव्वाणं महाभयं दुक्खं ।-त्ति बेमि । सं०-सम्यक् प्रतिपन्नांश्चापि एवं ब्रू यात्-सर्वेषां प्राणानां, सर्वेषां भूतानां, सर्वेषां जीवानां, सर्वेषां सत्त्वानां असातं अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखम् । इति ब्रवीमि । यदि आप कहें, हमे दुःख प्रिय नहीं है, तो आपका सिद्धान्त सम्यग् है। हम आपसे कहना चाहते हैं कि जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्वों के लिए दुःख अप्रिय, अशान्तिजनक और महाभयंकर है। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २६-तान् सम्यक प्रतिपन्नांश्चापि अहिंसा- 'हमें दुःख अप्रिय है' इस सम्यक् सिद्धान्त को स्वीकार करने परायणः साधुरेवं यात्-न केवलं युष्माकं दुःखमप्रियं वाले प्रतिवादियों को अहिंसा-परायण साधु इस प्रकार कहे-आपको किन्तु सर्वेषां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां तद् ही दुःख अप्रिय नहीं है, किन्तु सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को अप्रियं अपरिनिर्वाणं महाभयं च वर्तते। दुःख अप्रिय, अशांतिजनक और महाभयंकर है। १. द्रष्टव्यम् - ४।२१ सूत्रस्य भाष्यम् । । २. अनयोर्मूलमस्ति सातमसातं च । तत्र सातं पियं अस्सातं अप्पियं इति (चणि, पृष्ठ १४३)। ३. सातं मनमालावकारि, असातं मनःप्रतिकूलम् इति (वृत्ति, पत्र १६९)। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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