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आचारांगभाध्यम
२१. अणारियवयणमेयं । सं०-अनार्यवचनमेतत् । यह अनार्यवचन है।
भाष्यम् २१-अस्मिन् पूर्वोक्तपक्षे स्थापिते सूत्रकारो इस पूर्वोक्त पक्ष की स्थापना के विषय में सूत्रकार कहते हैंवक्ति-एतद् हिंसायाः प्रवर्तकं, अतः अनार्यवचनमस्ति। यह हिंसा का प्रवर्तक है, इसलिए अनार्य-वचन है ।
प्राचीनतरकाले आर्य : अनार्यः इति शब्दौ वर्गविशेष- प्राचीनतर काल में 'आर्य' तथा 'अनार्य'---ये दोनों शब्द वाचकौ आस्ताम् । भगवतो महावीरस्य युगे तो वर्गविशेष के वाचक थे । भगवान् महावीर के युग में उनका लाक्षणिक लाक्षणिको संजातौ। आर्यः श्रेष्ठः, अनार्यः अश्रेष्ठः । प्रयोग होने लगा। आर्य अर्थात् श्रेष्ठ और अनार्य अर्थात् अश्रेष्ठ । सूत्रकृतांगे 'आर्यमार्गस्य' उल्लेखो दृश्यते-'जे तत्थ सूत्रकृतांग आगम में 'आर्यमार्ग' का प्रयोग मिलता है। बौद्धों में आरियं मग्गं' [१।३।६६] । बौद्धानां आर्यसत्यं सुप्रतीत- 'आर्यसत्य' प्रसिद्ध है। प्रस्तुत प्रकरण में अनार्य शब्द का यही अर्थ मस्ति । प्रस्तुतप्रकरणे अनार्यपदस्य अयं अर्थः संगच्छते संगत है कि जो अहिंसा धर्म को नहीं जानता वह अनार्य है। इसका –यः अहिंसाधर्म न वेत्ति स अनार्यः । अस्य प्रतिपक्षी- प्रतिपक्षी है आर्य । जो अहिंसा धर्म को जानता है वह आर्य है । यः अहिंसाधर्म वेत्ति स आर्यः। .
२२. तत्थ जे ते आरिया, ते एवं वयासी-से दुद्दिठं च भे, दुस्सुयं च भे, दुम्मयं च भे, दुन्विण्णायं च भे, उड्ढे
अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे, जण्णं तुम्मे एवमाइक्खह, एवं भासह, एवं परूवेह, एवं पण्णवेह-'सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह पत्थित्थ दोसो।' सं०-तत्र ये ते आर्याः ते एवमवादिषुः --तद् दुर्दष्टं च युष्माकं, दुःश्रुतं च युष्माकं, दुर्मतं च युष्माकं, दुर्विज्ञातं च युष्माकं, ऊर्ध्वमधः तिर्यग् दिक्षु सर्वतः दुष्प्रतिलिखितं च युष्माकं, यद् यूयं एवमाचक्षीध्वं, एवं भाषेध्वं, एवं प्ररूपयेत, एवं प्रज्ञापयेत, सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः हन्तव्याः आज्ञापयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्याः उद्रोतव्याः । अत्रापि जानीथ नास्त्यत्र दोषः। जो वे आर्य हैं, उन्होंने ऐसा कहा है-'हिंसावादियो! आपने दोष-पूर्ण देखा है, दोष-पूर्ण सुना है, दोष-पूर्ण मनन किया है, दोष-पूर्ण समझा है, ऊंची-नीची और तिरछी सब दिशाओं में बोष-पूर्ण निरीक्षण किया है, जो आप ऐसा आख्यान करते हैं, भाषण करते हैं, प्ररूपण करते हैं एवं प्रज्ञापन करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत जीव और सत्त्व का हनन किया जा सकता है, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें दास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनका प्राण-वियोजन किया जा सकता है। इसमें भी तुम जानो कि हिंसा में कोई दोष नहीं है।'
भाष्यम् २२–अस्मिन् विषये आर्या एवं वदन्ति
इस विषय में आर्य ऐसा कहते हैं जो आपने कहा वह दोषयदुक्तं भवद्भिः तद् दुर्दष्टमस्ति ।
पूर्ण देखा हुआ है। आर्यः अहिंसाधर्मवित्।
आर्य वह होता है जो अहिंसा धर्म को जानता है। २३. वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूवेमो, एवं पण्णवेमो—'सव्वे पाणा सवे भूया सव्वे जीवा सब्वे
सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयन्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह णत्थित्थ दोसो।' सं०-वयं पुनरेवं आचक्ष्महे, एवं भाषामहे, एवं प्ररूपयामः, एवं प्रज्ञापयामः-सर्वे प्राणाः, सर्वे भूताः, सर्वे जीवाः, सर्वे सत्त्वाः न हन्तव्याः, न आज्ञापयितव्याः, न परिगृहीतव्याः, न परितापयितव्याः, न उद्बोतव्याः । अत्रापि जानीथ नास्त्यत्र दोषः ।। 'हम इस प्रकार आख्यान करते हैं, भाषण करते हैं, प्ररूपणा करते हैं एवं प्रज्ञापन करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए । इसमें भी तुम जानो कि अहिंसा (सर्वथा) निर्दोष है ।'
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