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अपरिनिर्वाणम् - अशान्तिः । फलति - 'सर्वे प्राणिनो न हंतब्बाः ।'
ततः
सिद्धान्तोऽयं
तइओ उद्देसो तीसरा उद्देशक
२७. उह एवं बहिया व लोघं से सव्वलोगंसि जे केद्र विष्णू अणुवीइ पास निश्चित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलिय चर्यति ।
आचारांग भाव्यम्
अपरिनिर्वाण का अर्थ है-अशांति। इसलिए यह सिद्धान्त फलित होता है - किसी भी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिए। (सभी प्राणी अवध्य हैं) ।
[सं०] उपेक्षस्य एवं बहिश्च लोकं ते सर्वलोके ये केचित् विशा अनुवीचि पश्य निक्षिप्तदण्डाः ये केचित् सत्त्वाः पलितं त्यजन्ति ।
,
अहिंसा से विमुख इस जगत् की तू उपेक्षा कर। जो ऐसा करता है, वह समूचे जगत् में विज्ञ होता है। तू अनुचिन्तन कर देख, हिंसा को छोड़ने वाले मनुष्य ही कर्म को क्षीण करते हैं।
भाष्यम् २७ एवं बाह्य जीवलोकं उपेक्षस्व । उपेक्षा
द्विविधा भवति । उप- सामीप्येन ईक्षणम् उपेक्षा', की उपेक्षा कर । उपेक्षा के दो प्रकार हैं
१. समीप से देखना उपेक्षा ।
अथवा अव्यापाररूपा उपेक्षा अहिंसापराङ्मुखान् सिद्धान्तान् उपेक्षस्व यः कश्चित् सर्वजीवान् सामीप्येन ईक्षते स सर्वलोके विशो भवति ।
२. अप्रवृत्तिरूप उपेक्षा ।
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तू इस बाह्य जीवलोक अहिंसा से विमुख दार्शनिक जगत्
भाष्यम् २८ - अहिंसा धर्मं त एवं विदन्ति ये वृताच: "देहं प्रति अनासक्ताः भवन्ति त एव जवो भवन्ति ।
स्थानांगे परिग्रहस्व त्रैविध्यमुक्तम् । तत्र प्रथमः प्रकारः देहः । देहं प्रति आसक्ताः मनुष्याः नानाविधायां १. आचारांग चूर्णि पृष्ठ १४४ : जब सामिप्पे इक्ख वरिसणे ।
२. वही, पृष्ठ १४४ : अहवा उबेहा अव्वावारउबेहा ।
अनुवषि-अनुचिन्तनपूर्वकं पश्य ये केचित् सस्था निक्षिप्तदण्डाः भवन्ति ते पलितं त्यजन्ति ।
निक्षिप्तदण्ड:- दण्डो- घातः । तत्र
द्रव्यदण्ड:
निक्षिप्तदंड - दंड का अर्थ है घात । द्रव्य दंड है-- शस्त्र
शस्त्रादिः, भावदण्ड: - दुष्प्रयुक्तं मनः । पलितम् कर्म आदि । भावदंड है- दुष्प्रयुक्त मन । 'पलित' शब्द कर्म के अर्थ में इत्यर्थे देयशब्दः ।
देश्य है।
तू हिंसा से पनमुख सिद्धान्तों की उपेक्षा कर जो कोई व्यक्ति सभी जीवों को निकटता से देवता है, वह समूचे जगत् में विज्ञ होता है।
२८. नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू ।
स० - - नराः मृताः धर्मविद इति ऋजवः ।
देह के प्रति अनासक्त मनुष्य ही धर्म को जान पाते हैं और धर्म को जानने वाले ही ऋ होते हैं।
तू अनुचितन कर देख, जो प्राणी निक्षिप्तदण्ड - हिंसा को छोड़ने वाले होते हैं वे ही पलित-कर्म को क्षीण करते हैं ।
अहिंसा धर्म को वे ही जानते हैं जो मृताचं - देह के प्रति अनासक्त होते हैं। वे ही ऋणु होते हैं।
स्थानांग सूत्र में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाए हैं। उनमें पहला प्रकार है - शरीर । शरीर में आसक्त मनुष्य विविध प्रकार की
३. वही, पृष्ठ १४४ : अच्चीयते तमिति अच्चा तं च शरीरं, व्हायंति सक्कारं प्रति मुता इव जस्स अच्चा स भवति सुतच्चा, अहवा अच्ची लेस्सा सामता ।
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