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________________ अ० ६. धुत, उ० २. सूत्र ३६-४४ । भाष्यम् ४१--अचेलावस्थायां परीषहाणां संभावना अधिकं वर्तते । अचेलं दृष्ट्वा कश्चिद् आक्रोशं प्रहारं अङ्गभङ्ग वा करोति । स अचेल : मुनिः तमाक्रोशपरीषहं वधपरीष' च तितिक्षमाणः परिव्रजेत् । ४२. पलियं पये अदुवा पगंचे। सं० 'पलियं' 'पगंथे' अथवा 'पगंथे' । कोई मनुष्य कर्म की स्मृति दिलाकर गाली देता है अथवा कोई असभ्य शब्दों का प्रयोग करके गाली देता है । भाष्यम् ४२ - पलियं कर्म । पगंथे- देशी क्रियापदं आक्रोशति इत्यर्थः । कश्चित् कर्मणः स्मृति कारयित्वा' गालि ददाति अथवा एवमेव अश्लीलानां गालीनां प्रयोगं करोति ।" भाष्यम् ४३ कश्चिद् अतर्थ: असद्भूतैः शब्दस्पर्श उपसर्ग करोति । तत्र शब्दा:- आफोभनतर्जनादयः, स्पर्शाः वधबन्धनमारणादयः शारीरिकयातना विशेषाः, तदानीं मतिमान् मुनिः अहं अवमौदर्ये स्थितोऽस्मि इति संख्याय सम्यक् चिन्तनं कृत्वा सम्यगालंबनमादाय वा तान् शब्दस्पर्शात्मकान् परीषहान् तितिक्षेत । ३१७ अचेल अवस्था में परीषहों की संभावना अधिक होती है । जल भवस्था में मुनि को देख कर कोई व्यक्ति मुनि पर आक्रोश करता है, प्रहार करता है, अंग-भंग करता है । वह अचेल मुनि, उस आक्रोश परीषह तथा वध परीषह को सहता हुआ परिव्रजन करे। ४३. अहि सद्द- फासेहि, इति संखाए । सं० - अतर्थः शब्दस्पर्शे:, इति संख्याय । कोई तथ्यहीन शब्दों तथा स्पर्शो द्वारा उपसर्ग करता है। मुनि इन सबको सम्यक् चिन्तन के द्वारा सहन करे । १. (क) उत्तरज्झयणाणि, २०२४, २५, २६, २७ । (ख) व्रष्टव्यम् - दसवे आलियं १०।१३ । २. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २१३ पलियं नाम कम्मं, सो य कम्मजुंगतो पो पतहा कहारो वा देवापण्य पिल्लेवगादि क्खिमंति, सो य केणइ सयक्खेण परीक्खेण वा असूयाए पगडं वा पगंथति, असूयाए ताव णाविअविगो तपहारगो पगडं तुमं तनहारलो तहावि न लज्जसि ममं सह विरुज्झमाणो, सरीरजुंगिते वा सूयाएवि अहं काणी कुंडो वा पगडं कोढिग कुज्जो वा, एवं ओरालाह पति , ३. सब प्रकार के काम करने वाले लोग अर्हत् के शासन में दीक्षित होते थे कुछ लोग गृहवास के कर्म को याद दिला पलियं का अर्थ है - कर्म । 'पगंथ' देशी क्रियापद है । इसका अर्थ है - आक्रोश करना, गाली देना । कोई पुरुष कर्म (प्रवृत्ति) की स्मृति दिलाकर गाली देता है अथवा वैसे ही अश्लील गाली-गलौज का प्रयोग करता है । Jain Education International ४४. एगतरे अण्णवरे अभिण्णाय, तितिक्खमाणे परिव्वए । सं० - एकतरान् अन्यतरान् अभिज्ञाय तितिक्षमाणः परिव्रजेत् । एकजातीय या भिन्नजातीय परीषहों को उत्पन्न हुआ जान कर मुनि उन्हें सहन करता हुआ परिव्रजन करे । 7 . कोई पुरुष तथ्यहीन शब्दों तथा स्पर्शो द्वारा उपसर्ग उपस्थित करता है। शब्दों से तात्पर्य है आकोश, भलना तर्जना आदि। स्पर्म का अर्थ है-वध बंधन, मारना आदि शारीरिक यातनाविशेष । तब मतिमान् मुनि 'मैं अवमौदर्य में प्रतिष्ठित हूं' - ऐसा सम्यग् चितन कर अथवा सम्यग् आलंबन लेकर उन शब्दों और स्पों से उत्पन्न परीषहों को सहन करे । ! कर उन्हें कोसते, जैसे ओ जुलाहा तु सा हो गया पर क्या जानता है ?' 'ओ लकडहारा ! कल तक लकडियों का गट्ठर ढोता था, आज साधु बन गया !" ४. सम्यक् चिन्तन के पांच प्रकार हैं— कोई गाली दे, पीटे या अंग-भंग करे, तब मुनि चिन्तन करे १. यह पुरुष यक्ष से आविष्ट है । २. यह पुरुष उन्मत्त है । ३. यह पुरुष दर्पयुक्त चित्त वाला है। ४. मेरा किया हुआ कर्म उदय में आ रहा है, इसलिए यह पुरुष मुझे गाली देता है, बांधता है, पीटता है । ५. मैं इस कष्ट को सहन करूंगा, तो मेरे कर्म क्षोण होंगे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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