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आचारांगभाष्यम्
'एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास । 'व्यक्ति एकत्व (अकेलेपन) की अभ्यर्थना करे । यह एकल मोक्ष एसप्पमोक्खे अमुसेऽवरे वी अकोहणे सच्चरए तवस्सी ॥' है। यह मिथ्या नहीं है। इसे देख । एकत्व में रहने वाला पुरुष मोक्ष,
सत्य, प्रधान, क्रोधमुक्त, सत्यरत और तपस्वी होता है।' ३६. जयमाणे एत्थ विरते अणगारे सव्वओ मुंडे रीयंते । सं०-यतमानः अत्र विरतः अनगारः सर्वतः मुण्डः रीयमाणः । वह संयम-पूर्वक चर्या करने वाला, विरत, गृहत्यागी, सब प्रकार से मुण्ड और अनियतवास वाला होता है ।
भाष्यम् ३९-स एकोऽहमस्मि इति भावनाया: वह पुरुष 'मैं अकेला हूं' इस भावना के विकास के लिए विकासाय यतमानः, अथवा एकोऽहमस्मि इति भावनया प्रयत्नशील, अथवा 'मैं अकेला हूं' इस भावना से संयम की साधना यच्छन्-संयमं कुर्वाणः, अत्र कामानां परित्यागाय करता है। वह काम के परित्याग के लिए विरत-काम में रति न विरत:--कामेषु रति अकुर्वाणः सर्वतो मुण्डो' भूत्वा करता हुआ, सब प्रकार से मुंड होकर अनियतवास वाला होता है रीयमाणो भवति, अनियतवासमाचरतीति यावत् । अर्थात् अनियतवास का आचरण करता है । ४०. जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति ओमोयरियाए । सं०-यः अचेलः पर्युषितः संतिष्ठते अवमोदरिकायाम् । जो मुनि निर्वस्त्र रहता है, वह अवमोदयं तप का अनुशीलन करता है।
भाष्यम् ४.--इदानीं अचेलचर्या । य: अचेल: प्रस्तुत है—अचेल चर्या । जो मुनि अचेल (निर्वस्त्र या अल्प पर्युषितः स अवमोदरिकायां संतिष्ठते ।' अवमोदरिका वस्त्र) होता है, वह अवमौदर्य तप का अनुशीलन करता है । अवमौदर्य -अल्पीकरणम् । वस्त्रादीनां आहारस्य च अल्पीकरणं का अर्थ है-अल्पीकरण । वस्त्र आदि का तथा आहार का अल्पीकरण द्रव्यत: अवमोदरिका, क्रोधादीनामल्पीकरणं भावतः करना द्रव्य अवमौदर्य है । क्रोध आदि कषायों का अल्पीकरण करना अवमोदरिका । वस्त्राद्युपकरणानि क्रोधादीनां निमित्तं भाव अवमौदर्य है। वस्त्र आदि उपकरण क्रोध आदि के निमित्त बनते जायन्ते, अतस्तेषां त्यागं करोति, स भावतोऽपि अवमोद- हैं, इसलिए वह उनका त्याग करता है । वह भावतः भी अवमौदर्य तप रिकां करोति।
का अनुशीलन करता है। ४१. से अक्कुठे व हए व लूसिए वा। सं०–स आक्रुष्टो वा हतो वा लूषितो वा । कोई मनुष्य उसे गाली देता है, पीटता है या अंग-भंग करता है।
१. स्थानांग सूत्र (१०९९) में दस प्रकार के मुण्ड बतलाए
१. कोध-मुण्ड-क्रोध का अपनयन करने वाला। २. मान-मुण्ड-मान का अपनयन करने वाला। ३. माया-मुण्ड-माया का अपनयन करने वाला। ४. लोभ-मुण्ड-लोभ का अपनयन करने वाला। ५. शिर-मुण्ड-शिर के केशों का लुंचन करने वाला। ६. श्रोत्रन्द्रिय-मुण्ड---कर्णेन्द्रिय के विकार का अपनयन
करने वाला। ७. चक्षुरिन्द्रिय-मुण्ड-चक्षुरिन्द्रिय के विकार का अप
नयन करने वाला। ८. नाणेन्द्रिय-मुण्ड-घ्राणेन्द्रिय के विकार का अपनयन ,
करने वाला।
९. रसनेन्द्रिय-मुण्ड–रसनेन्द्रिय के विकार का अपनयन
करने वाला। १०. स्पर्शनेन्द्रिय-मुण्ड-स्पर्शनेन्द्रिय के विकार का अप
नयन करने वाला। २. (क) चूणा (पृष्ठ २१३) अचेलपदस्य मौलिकोऽर्थो विद्यते
-दव्वे तित्थगर असंतचेलो, भावे रागदोसविजओ,
सेहावि चेलेहि अचेला। (ख) वृत्तौ (पत्र २१९) अल्पचेल इति उत्तरवर्ती अर्थ:
प्रतीयते-अचेलः अल्पचेलो जिनकल्पिको वा। ३. संचिक्खति इति मूलपदम्, चूर्णी (पृष्ठ २१३)-संमं विक्खमाणे संविक्खमाणे।
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