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आचारांगभाष्यम् उपगता भवन्ति, तान् सर्वान् अधिसहेत । 'सुभि दुभि' सहन करे । 'सुब्भि' और 'दुब्भि'-इन दोनों शब्दों से गंध का अर्थ पदाभ्यां गंधस्यार्थः संभवति, किन्तु अत्र आहारस्य निकलता है, किन्तु यहां आहार का विषय प्रस्तुत नहीं है। अग्रिम विषयः प्रस्तुतो नास्ति । अग्रिमसूत्रे 'अदुवा तत्थ भेरवा' सूत्र में 'अदुवा तत्थ भेरवा'-'अथवा वहां भैरव रूपों को इति उक्तमस्ति । 'तत्र' इति पदेन 'श्मशाने' इति देखकर'-ऐसा कहा है। उस सूत्र में 'तत्र' पद से श्मशान में ऐसा गृहीतम् ।' 'अदुवा' इति पदेन 'सुब्भि दुब्भि' पदयो- अर्थ अभिप्रेत है। 'अथवा' पद से सुब्भि-दुब्भि-इन दो पदों का विकल्पः सूचितः । एतेन सुभि दुब्भि पदाभ्यां मनोज्ञा विकल्प सूचित किया गया है। इस विकल्प के अनुसार इन दोनों पदों अमनोज्ञाः शब्दाः अत्र गृहीताः। 'नायाधम्मकहाओ' से मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द गृहीत हैं । ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में 'सुब्भि-दुब्भि' सूत्रे 'सब्भि दुभि' पदयोः गन्धवत् शब्देनापि संबंधः पदों का संबंध गंध की भांति शब्द से भी प्रतिपादित है । श्मशान प्रतिपादितोऽस्ति । श्मशानप्रतिमायां शब्दादिरूपा प्रतिमा में शब्द आदि के उपसर्ग उत्पन्न होते ही हैं। उपसर्गा संभवन्त्येव । ५६. अदुवा तत्थ भेरवा। सं०-अथवा तत्र भैरवाः । अथवा श्मशान में भैरव रूपों को देखकर भयभीत न बने ।
भाष्यम् ५६-अथवा तत्र एमाशानियां प्रतिमायां अथवा प्रमशान-प्रतिमा में भैरवों का प्रादुर्भाव होता है। भैरवाः प्रादुर्भवन्ति । भैरवाः–भयानकानि रूपाणि। भैरव का अर्थ है-भयानक रूप । दशवकालिक सूत्र में कहा हैउक्तञ्च दसवेआलियसूत्रे-'पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, श्मशान में प्रतिमा को स्वीकार कर साधक भय उत्पन्न करने वाले नो भायए भय भेरवाई विस्स ।'५
भयानक रूपों को देखकर डरे नहीं। ५७. पाणा पाणे किलेसंति । सं० ---प्राणाः प्राणान् क्लेशयन्ति । हिस्र प्राणी प्राणों को क्लेश पहुंचाते हैं।
भाष्यम् ५७-अस्मिन् सूत्रे जीवानां प्रकृतिनिरू- इस सूत्र में जीवों की प्रकृति का निरूपण है । जैसे समुद्र में पिताऽस्ति । यथा समुद्रे मात्स्यन्यायः प्रवर्तते-महान् 'मात्स्य-न्याय' चलता है-बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती मत्स्यः क्षुद्रं मत्स्यं गिलति, तथा हिंस्राः पशवः पक्षिणश्च है, वैसे ही हिंस्र पशु-पक्षी अन्य प्राणियों को मार डालते हैं । मनुष्यों इतरान् प्राणिनः निघ्नन्ति । मनुष्येष्वपि एषा प्रकृति- में भी इस प्रकार की प्रकृति होती है। हिंस्र प्रकृति वाले मनुष्य १. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र २२० : अथवा तत्रकाकिविहा
गहिता अक्कोसा, तद्यथा-णिभत्थणादि, एवं रित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतः।
रूवाणि वि भेरवाई भवति, जहा 'तस्स पिसायस्स (ख) चूणों (पृष्ठ २१५) 'अहवा तत्थ विहरतस्स' इति
अयमेवारूवे वण्णावासे पणते, तं जहा-सीसं से व्याख्यातमस्ति।
गोकिलंजसंठाणसंठिती,' गंधावि अहिमडादि उव्वेय२. अंगसुत्ताणि ३, नायाधम्मकहाओ ११२९ : सुम्भिसद्दा
णया, भयं करेंति ति भेरवा, रसा तत्थेव, फरिसा वि वि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति।....."सुग्भिगंधा
छेदभेददाहादि । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१५-१६) वि पोग्गला दुग्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुग्भिगंधा वि
(ख) वृत्तौ भैरवपदेन प्राधान्येन शब्दा एव गृहीताः सन्तिपोग्गला सुन्मिगंधत्ताए परिणमंति।
भैरवा भयानका यातुधानाविकृताः शब्दाः प्रादुर्भवेयुः, ३. नवसुत्ताणि, दसाओ ७३२ : एगराइयण्णं भिक्खुपडिम
यदि वा 'भैरवाः' 'बीभत्साः'। पडिवन्नस्स अणगारस्स णिच्चं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा
(आचारांग वृत्ति, पत्र २२०) तिरिक्खजोणिया वा, ते उप्पन्ने सम्म सहति खमति
५. दसवेआलियं, १०।१२। तितिक्खति अहियासेति।
६. आचारांग चूणि पृष्ठ २१६ : पाणा सीहा वग्धा पिसायादि, ४. (क) चूणौं भैरवपदेन शब्दादिविषयाणां ग्रहणं कृतमस्ति
पुणरवि पाणाओ पाणादि, जं भणितं भैरवा प्राणा, साहुस्स –'अहवा तत्थ विहरंतस्स भयाणगा भेरवा सद्दा
आउप्पाणादि।
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