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________________ ३२२ आचारांगभाष्यम् उपगता भवन्ति, तान् सर्वान् अधिसहेत । 'सुभि दुभि' सहन करे । 'सुब्भि' और 'दुब्भि'-इन दोनों शब्दों से गंध का अर्थ पदाभ्यां गंधस्यार्थः संभवति, किन्तु अत्र आहारस्य निकलता है, किन्तु यहां आहार का विषय प्रस्तुत नहीं है। अग्रिम विषयः प्रस्तुतो नास्ति । अग्रिमसूत्रे 'अदुवा तत्थ भेरवा' सूत्र में 'अदुवा तत्थ भेरवा'-'अथवा वहां भैरव रूपों को इति उक्तमस्ति । 'तत्र' इति पदेन 'श्मशाने' इति देखकर'-ऐसा कहा है। उस सूत्र में 'तत्र' पद से श्मशान में ऐसा गृहीतम् ।' 'अदुवा' इति पदेन 'सुब्भि दुब्भि' पदयो- अर्थ अभिप्रेत है। 'अथवा' पद से सुब्भि-दुब्भि-इन दो पदों का विकल्पः सूचितः । एतेन सुभि दुब्भि पदाभ्यां मनोज्ञा विकल्प सूचित किया गया है। इस विकल्प के अनुसार इन दोनों पदों अमनोज्ञाः शब्दाः अत्र गृहीताः। 'नायाधम्मकहाओ' से मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द गृहीत हैं । ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में 'सुब्भि-दुब्भि' सूत्रे 'सब्भि दुभि' पदयोः गन्धवत् शब्देनापि संबंधः पदों का संबंध गंध की भांति शब्द से भी प्रतिपादित है । श्मशान प्रतिपादितोऽस्ति । श्मशानप्रतिमायां शब्दादिरूपा प्रतिमा में शब्द आदि के उपसर्ग उत्पन्न होते ही हैं। उपसर्गा संभवन्त्येव । ५६. अदुवा तत्थ भेरवा। सं०-अथवा तत्र भैरवाः । अथवा श्मशान में भैरव रूपों को देखकर भयभीत न बने । भाष्यम् ५६-अथवा तत्र एमाशानियां प्रतिमायां अथवा प्रमशान-प्रतिमा में भैरवों का प्रादुर्भाव होता है। भैरवाः प्रादुर्भवन्ति । भैरवाः–भयानकानि रूपाणि। भैरव का अर्थ है-भयानक रूप । दशवकालिक सूत्र में कहा हैउक्तञ्च दसवेआलियसूत्रे-'पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, श्मशान में प्रतिमा को स्वीकार कर साधक भय उत्पन्न करने वाले नो भायए भय भेरवाई विस्स ।'५ भयानक रूपों को देखकर डरे नहीं। ५७. पाणा पाणे किलेसंति । सं० ---प्राणाः प्राणान् क्लेशयन्ति । हिस्र प्राणी प्राणों को क्लेश पहुंचाते हैं। भाष्यम् ५७-अस्मिन् सूत्रे जीवानां प्रकृतिनिरू- इस सूत्र में जीवों की प्रकृति का निरूपण है । जैसे समुद्र में पिताऽस्ति । यथा समुद्रे मात्स्यन्यायः प्रवर्तते-महान् 'मात्स्य-न्याय' चलता है-बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती मत्स्यः क्षुद्रं मत्स्यं गिलति, तथा हिंस्राः पशवः पक्षिणश्च है, वैसे ही हिंस्र पशु-पक्षी अन्य प्राणियों को मार डालते हैं । मनुष्यों इतरान् प्राणिनः निघ्नन्ति । मनुष्येष्वपि एषा प्रकृति- में भी इस प्रकार की प्रकृति होती है। हिंस्र प्रकृति वाले मनुष्य १. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र २२० : अथवा तत्रकाकिविहा गहिता अक्कोसा, तद्यथा-णिभत्थणादि, एवं रित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतः। रूवाणि वि भेरवाई भवति, जहा 'तस्स पिसायस्स (ख) चूणों (पृष्ठ २१५) 'अहवा तत्थ विहरतस्स' इति अयमेवारूवे वण्णावासे पणते, तं जहा-सीसं से व्याख्यातमस्ति। गोकिलंजसंठाणसंठिती,' गंधावि अहिमडादि उव्वेय२. अंगसुत्ताणि ३, नायाधम्मकहाओ ११२९ : सुम्भिसद्दा णया, भयं करेंति ति भेरवा, रसा तत्थेव, फरिसा वि वि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति।....."सुग्भिगंधा छेदभेददाहादि । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१५-१६) वि पोग्गला दुग्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुग्भिगंधा वि (ख) वृत्तौ भैरवपदेन प्राधान्येन शब्दा एव गृहीताः सन्तिपोग्गला सुन्मिगंधत्ताए परिणमंति। भैरवा भयानका यातुधानाविकृताः शब्दाः प्रादुर्भवेयुः, ३. नवसुत्ताणि, दसाओ ७३२ : एगराइयण्णं भिक्खुपडिम यदि वा 'भैरवाः' 'बीभत्साः'। पडिवन्नस्स अणगारस्स णिच्चं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा (आचारांग वृत्ति, पत्र २२०) तिरिक्खजोणिया वा, ते उप्पन्ने सम्म सहति खमति ५. दसवेआलियं, १०।१२। तितिक्खति अहियासेति। ६. आचारांग चूणि पृष्ठ २१६ : पाणा सीहा वग्धा पिसायादि, ४. (क) चूणौं भैरवपदेन शब्दादिविषयाणां ग्रहणं कृतमस्ति पुणरवि पाणाओ पाणादि, जं भणितं भैरवा प्राणा, साहुस्स –'अहवा तत्थ विहरंतस्स भयाणगा भेरवा सद्दा आउप्पाणादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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