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________________ अ० ६. धुत, उ० २,३. सूत्र ५६-६० ३२३ रस्ति। हिंस्रप्रकृतयो मनुष्याः मनुष्यानपि क्लेशपूर्णां मनुष्यों को भी क्लेशपूर्ण अवस्था में डाल देते हैं। दशां नयन्ति ।' ५८. ते फासे पुटो धोरो अहियासेज्जासि ।-त्ति बेमि । सं०-तान् स्पर्शान् स्पृष्टः धीरः अधिसहेत । इति ब्रवीमि । उन स्पर्शो परीषहों से स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन्हें सहन करे। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ५८-परिव्रजनकाले श्मशानप्रतिमायां वा परिव्रजन काल में अथवा श्मशान-प्रतिमा में होने वाले प्राग् जायमानैः प्रागनिरूपितैः स्पर्श : स्पृष्टः सन् धीरो मुनिः निरूपित परीषहों से स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन इष्ट-अनिष्ट परीषहों तान् इष्टानिष्टान् स्पर्शान् अधिसहेत। धीरः- को सहन करे। धीर का अर्थ है -निर्मल, अनु विग्न, बर्ची से काटे अनाविलः, अनुद्विग्नः वासीचन्दनकल्पः ।। जाने और चन्दन का लेप किए जाने पर समभाव में रहने वाला । तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक ५६. एयं खु मुणी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधतकप्पे णिज्झोसइता। सं०-- एतत् खलु मुनिः आदानं सदा स्वाख्यातधर्मा विधूतकल्पः निःशोषिता । सदा सु-आख्यात धर्म वाला तथा धुत-आचार सेवी मुनि इस आदान (वस्त्र) का परित्याग कर देता है। भाष्यम् ५९–स्वाख्यातधर्माः विधूतकल्पो मुनिः सु-आख्यात धर्म वाला तथा धुत-आचार सेवी मुनि सदा इस सदा एतद् आदानं क्षपयिता भवति। आदान- आदान का परित्याग कर देता है। आदान का अर्थ है-वस्त्र । कल्प वस्त्रम। कल्पः-आचारः। विधूतः कल्पो यस्य स का अर्थ है-आचार। जिसका आचार 'धुत' है वह 'विधूतकल्प' विधूतकल्पः । कहलाता है। ६०. जे अचेले परिवसिए, तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवइ-परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीवीस्सामि, उक्कसिस्सामि, बोक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि। सं०-यः अचेलः पर्युषितः, तस्य भिक्षोः नो एवं भवति--परिजीणं मे वस्त्रं वस्त्रं याचिष्ये, सूत्रं याचिष्ये, सूचि याचिष्ये, संधास्यामि, सेविष्यामि, उत्कर्षयिष्यामि, व्युत्कर्षयिष्यामि, परिधास्यामि, प्रावरिष्यामि । जो निर्वस्त्र रहता है, उस भिक्षु के मन में यह (विकल्प) उत्पन्न नहीं होता, 'मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूंगा। फटे वस्त्र को सांधने के लिए धागे की याचना करूंगा, सूई की याचना करूंगा, उसे साधूंगा, उसे सोऊंगा। छोटा है, इसलिए उसे जोड़कर बड़ा बनाऊंगा। बड़ा है, इसलिए उसे काट कर छोटा बनाऊंगा। उसे पहनूंगा और ओढुंगा । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१६ : किलेसंति-परिताति वा स्थानांग (३१५०७) में स्वाध्याय ध्यान और किलेसंति वा उद्दति वा। तपस्यात्मक धर्म को स्वाख्यात धर्म कहा गया है२. वही, पृष्ठ २१६ : धीमां धीरो, समं अणाइले अणम्वि सुअधिज्झिते सुज्माइते सुतवस्सिते सुयक्खाते णं ग्गो वासीचंदणकप्पो। भगवता धम्मे पण्णत्ते। ३. स्वाख्यात का शाब्दिक अर्थ है-सम्यक् प्रकार से कहा ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २२१ : 'झोषयित्वा'। गया। भगवान ने समता धर्म का प्रतिपादन किया। वह ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१७ : आताणं-आयाणं नर्यात्रिक-निर्वाण तक पहुंचाने वाला, सत्य-अनेकान्त नाणादितियं । दृष्टिकोण से युक्त, संशुद्ध-राग, द्वेष और मोह रहित (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२१ : आदानं-वस्त्रादि । तया प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षण में आश्रव का निरोध और ६. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१७ : कप्पोत्ति वा मग्गोत्ति वा बंध की निर्जरा करने वाला है, इसलिए वह स्वास्यात है। आयारोत्ति वा धम्मोत्ति वा एगट्टा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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