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________________ अ० ६. धुत, उ० २. सूत्र ५०-५५ ५३. तत्थियराइयरेहिं कुलेहि सुद्धसणाए सव्वेसणाए । सं० तत्रेतरेतरेषु कुलेषु शुद्धेषणया सर्वेषणया | वे नाना प्रकार के कुलों में शुद्ध एषणा और सर्वेषणा के द्वारा परिव्रजन करते हैं । माध्यम् ५३ तत्र साधुभिविहारप्रायोग्ये ग्रामे नगरे मुनियों को विहार करने योग्य गांव अथवा नगर में अन्तप्रांत वा इतरेतरेषु' - अन्तप्रान्तेषु कुलेषु शुद्धेषणया सर्वेषणया कुलों में शुद्ध एषणा और सर्वेषणा के द्वारा परिव्रजन करना चाहिए । परिव्रजितव्यम् । शुष्णा-अलेपकृता । सर्वेषण सप्तापि पिण्डेषणाः । तत्र द्विकोटिकाः साधवः -- गच्छान्तर्गता गच्छनिर्गताश्च । गच्छनिर्गतानां कृते शुद्धपणाया निर्देश गच्छ्वासिनां कृते च सर्वेषणायाः । गच्छान्तर्गतानां सर्वाः सप्तापि पिण्डपणा अनुज्ञाताः । गच्छनिर्गतानां पुनराद्ययोः द्वयोरग्रहः, पञ्चस्वभिग्रहः । ५४. से मेहावी परिव्वए । सं० स मेधावी परिव्रजेत् । यह मेघावी परिवजन करे। भाष्यम् ५४ - स मेधावी परिव्रजेत्। अत्र परिव्रजेदिति क्रियापदेन तस्य अप्रतिबद्धता सूचितास्ति । एकचर्या प्रतिपन्नो मुनिः न क्वचित् स्थिरवासी भवति । ५५. सुमि अदुवा मि सं० 'सुभि" अथवा 'दुब्भिम्' ।" वह मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्दों को सहन करे । " १. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २१५: इतर इतरं इतरेतरं, कम्मो गहितो ण उमाह सीमासातो वा अतरं बुच्चति, इतरा इतरं जंतवो विणिकट्टतरं जाव वमगकुलं, एवमितरा [इतर इतरेतरं भवति । २. द्रष्टव्यम् - आयारचूला १।१४१-१४७ । ३. पूर्ण (पृष्ठ २१५) एतत् सूत्रं मन्यवासिगदनिगं तयोः द्वयोरपेक्षया व्याख्यातमस्ति - सुद्धेसणाए अलेवकडाए, चत्तारि उवरिल्ला, एताओ गच्छणिग्गयाणं, तत्थ पंचसु अग्गो अभिग्गही अण्णतरियाए, सब्वेसणाएत्ति गच्छवासी साहिति मिति । प्रवचनसारोद्धारस्य बुतावपि (पत्र २१५) अर्थ Jain Education International ३२१ शुषमा का अर्थ है अपकृत भोजन अर्थात वैसा भोजन जिसका लेप न लगे । वह मुनि कभी श्मशान प्रतिमा को स्वीकार करता है। तब भाष्यम् ५५ स कदाचित् श्मशानप्रतिमां प्रतिपद्यते तदानीं 'सुब्भि' मनोज्ञा: 'दुब्भि' अमनोज्ञा वा शब्दा' उसे मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ शब्द सुनाई देते हैं । वह उन सबको सर्वेषणा का अर्थ है-सात प्रकार की पिण्डेषणाएं - अर्थात् आहार ग्रहण से लेकर आहार करने तक की सारी एषणाएं । साधुओं की दो श्रेणियां हैं- गच्छान्तर्गत ( संघबद्ध साधना करने वाले) तथा गच्छनिर्गत (बंधमुक्त साधना करने वाले)। गच्छ निर्गत मुनियों के लिए षणा का और मन्थान्तर्गत मुनियों के लिए सर्वेषणा का निर्देश है। गण्डान्तर्गत मुनियों के लिए सभी सातों पिण्डैषणाएं अनुज्ञात हैं । गच्छनिर्गत मुनियों के लिए प्रथम दो पिण्डैषणाएं अग्राह्य हैं और शेष पांच पिण्डेषणाओं में वे अभिग्रह करते हैं । वह मेधावी मुनि परिव्रजन करे। यहां 'परिव्रजन करे - इस क्रियापद से उसकी अप्रतिबद्धता सूचित की है। एकलचर्या को स्वीकार करने वाला मुनि कहीं स्थिरवासी नहीं होता । विभागो दृश्यते - इह च द्विकोटिकाः साधवो गच्छान्तर्गता गच्छनिर्गताश्च तत्र गच्छान्तर्गतानामेताः सप्तापि ग्रहीतुमनुज्ञाताः गच्छनिर्गतानां पुनराद्ययोः द्वयोरग्रहः पञ्चस्यभिग्रहः । ४,५. देशीपदे । ६. चूणां वृत्तौ च अनयोः गंधविषयकोऽर्थः कृतोस्ति (क) आचारांग चूमि, पृष्ठ २१५ गंधकामपरिण्यागो भणितो । For Private & Personal Use Only अहवा मि (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२० : स आहारस्तेष्वितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्यात् अथवा दुर्गन्धः, न तंत्र रागद्वेषी यात् www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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