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________________ मूलसूत्र तथा माध्यगत विषय-विवरण २९ १२१-१३९. काम की अनासक्ति : काम-मुक्ति १२१. कामनाओं की अनतिक्रमणता ० परिग्रह का मूल : काम १२२-१२३. कामनाओं के दुरतिक्रमण के दो हेतु १२४. कामकामी पुरुष की मनःस्थिति का चित्रण १२५. अपायविचय ध्यान की प्रक्रिया ० कामातिक्रमण का पहला उपाय-विपश्यना ० विपश्यना का स्वरूप १२६. काम-मुक्ति का दूसरा उपाय-अनुपरिवर्तनानुप्रेक्षा १२७. काम-मुक्ति का तीसरा उपाय-संधि-दर्शन २ संधि शब्द के विभिन्न अर्थ १२८. पराक्रम से काम-मुक्ति १२९. काम-मुक्ति का चौथा उपाय-निर्वेद १३०. अशुचित्वानुप्रेक्षा ० पुरुष के नो और स्त्री के बारह स्रोत १३१. काम-विपाक के दर्शन से काम-मुक्ति १३२. परिज्ञापूर्वक काम का परिहार ० काम-मुक्ति का विचार-विचयात्मक आलम्बन १३३. कामासक्ति की ओर मानसिक दौड़ १३४. पुरुष कामकामी होता है। ० प्रवृत्ति और वृत्ति १३५. कामात पुरुष वैरवृद्धि का कर्ता १३६. काम का आसेवन तृप्ति बढ़ाता है या अतृप्ति ? १३७. अमर की भांति आचरण किसका? १३८-१३९. आर्त कौन ? क्रन्दन क्यों ? १४०-१५०.काम-चिकित्सा १४०-१४४. काम-चिकित्सा में वनस्पति आदि जीवों का हनन १४५-१४६. हिसानुबंधी काम-चिकित्सा कराने वाला बाल १४७. अनगार के लिए हिसानुबंधी चिकित्सा का निषेध १४८. सावद्य चिकित्सा और संयम १४९. पापकर्म का परिहार १५०. एक जीवनिकाय की हिंसा अर्थात् छहों जीव-निकायों की हिंसा • एक का अतिमात-सब का अतिपात १५१-१५९. परिग्रह का परित्याग १५१. पुरुष हिंसा क्यों करता है ? समाधान १५२. प्रमाद से गति-चक्र १५३. हिंसा और परिग्रह में प्राणी व्यथित १५४. हिंसा और परिग्रह का अनिकरण है परिज्ञा १५५. परिज्ञा से कर्मोपशांति १५६. परिग्रह का त्याग कौन कर सकता है ? . ० चक्रवर्ती भरत का उदाहरण • बुद्धिगत परिग्रह और पदार्थगत परिग्रह १५७. दृष्टपथ कौन ? १५९. लोक और लोकसंज्ञा १६०-१६५. अनासक्त का व्यवहार : कर्म-शरीर का प्रकंपन १६०-१६२. कर्म-शरीर के प्रकंपन के ध्यानात्मक उपाय । १६०. वीर अरति और रति को सहन नहीं करता। ० मन की विशिष्ट अवस्थाएं अरति और रति • अप्रमाद की साधना का रहस्य १६१. साधक शब्द और स्पर्श को सहन करे । • श्मशान प्रतिमा • अपायविचय का उपाय १६२. प्रमोद का अपकर्षण १६३. मौन की प्राप्ति और कर्म-शरीर का प्रकंपन १६४. कर्म-शरीर के धुनन का उपाय : आहार-संयम १६६-१७०. संयम की सम्पन्नता और विपन्नता १६६. संयम से विपन्न कौन ? १६७. चरित्रहीन यथार्थ का निरूपण नहीं करता १६८. चरित्रवान् यथार्थ के निरूपण में समर्थ १६९. लोकसंयोग का अतिक्रमण १७०. नायक कौन ? १७१-१७३. बंध-मोक्ष १७१. दुःख की परिज्ञा • परिज्ञा के चार चरण १७२. कर्म की परिज्ञा १७३. कर्म-परिज्ञा का उपाय ० अनन्यदर्शी और अनन्याराम १७४-१५६. धर्मकथा १७४. धर्मकथा में विपन्न और अविपन्न का भेद नहीं ० अपरिग्रह का सिद्धांत धनी और अधनी-सबके लिए हितावह १७५. धर्मकथा में अन्य सिद्धांत का अनादर वयं १७६. विचार का आग्रह भी परिग्रह ० धर्मकथा कौन ? कैसे? ० धर्मकथा करने में विवेक की अनिवार्यता ० चार प्रकार के विवेक का पालन १७७. धर्मकथा करते समय दर्शन और पुरुष का विवेक १७८. धर्मकथा करने में श्रेष्ठ कौन ? १७९. सर्वपरिज्ञाचारिता का निर्देश १८०. हिंसा-कर्म से अलिप्त कौन ? • अहिंसा का हृदय ० निर्लेपतावाद का कथन १८१. अहिंसा का मर्मज्ञ कौन ? • अनुद्घातन का चूर्णिगत अर्थ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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