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________________ २८ ३६-३९. अनगार ३६. अलोभ से लोभ को पराभूत करना • अलोभ और लोभ--दोनों चित्तधर्म ० अकर्मा प्रवृत्ति-चक्र से मुक्त ३८-३९. अनगार वह होता है ४०-४५. दंड-प्रयोग ४०. धृति रहित पुरुष का मनस्ताप ४१. अनेक प्रकार के बल ४२-४४. दंड-प्रयोग के विभिन्न प्रयोजन ४५. बल-प्राप्ति के चार हेतु ४६-४८. हिंसा-विवेक ० दंड-समारम्भ न करने का निर्देश • आर्य-मार्ग और कुशल को निर्देश ४९-५६. समत्व ४९. सम्मान की वांछा भी परिग्रह • उसकी विमुक्ति का विचय-सूत्र • उच्चगोत्र और नीचगोत्र की समीक्षा ५०. गोत्रवाद की निरर्थकता ५१. समता का अनुभव ५२. नीचगोत्र का अनुभव दुःख क्यों ? ५३. कर्म-विपाक का निदर्शन-कोई अंधा, कोई बहरा ५५. प्रमाद से नानारूप योनियों की प्राप्ति ५६. कर्म-विपाक के अज्ञान से भव-भ्रमण ५७-७४. परिग्रह और उसके दोष ५७-५८. ममत्व-ग्रन्थि की सुदृढ़ता ५९. परिग्रही व्यक्ति में न तप, न दम और न नियम ६०. परिग्रही सुखार्थी होकर भी दुःखी ६१. ध्रुवचारी अपरिग्रह के मार्ग पर ६२. अप्रमत्तता का आलम्बन-सूत्र-मृत्यु के प्रति सजगता ६३-६४. सब प्राणी जीना चाहते हैं ६५. परिग्रह के लिए हिंसा और निग्रह • धन की बहुलता के तीन साधन ६६-६७. धन के प्रति मूर्छा ६८. धन की तीन अवस्थाएं । तीसरी अवस्था-विनाश की अपरिहार्यता ६९. अर्जन दुःख का हेतु ७१. क्रूरकर्मा परिग्रही मनुष्य की पारगमन में असमर्थता ७२. अनात्मविद् परिग्रह का परिहार करने में असमर्थ • आदानीय शब्द की मीमांसा ७३. द्रष्टा व्यपदेश से अतीत ७४. अद्रष्टा व्यपदेश के घेरे में आचारांगभाष्यम ७५-१०३. भोग और भोगी के दोष ७५. भोग से रोग ७६. रोग के कारण तिरस्कार ७७. त्राण और शरण का अर्थ ७८. सुख-दुःख अपना-अपना ७९. कामभोग का परिणाम ८०-८५. अर्थार्जन और अर्थ-बिनाश की मीमांसा ८६. आशा और छंद का त्याग ८७. शल्य का सृजन और उद्धरण ८८. जिससे होता है उससे नहीं भी होता ८९. मोहावृत मनुष्य का अज्ञान ९०. स्त्रियों से प्रत्यथित कौन ? ९१. स्त्रियां आयतन कैसे? ९२. अनायतन में आयतन का अभिनिवेश ९३. मूढ व्यक्ति धर्म का अज्ञाता ९४. महामोह-कामभोग में प्रमत्त मत बनो ९५. कुशल प्रमत्त न हो ९६-९७. अप्रमाद की साधना के चार आलम्बन-सूत्र ९८-९९. विषयाभिलाषा की भयंकरता १००. काममुक्त हिंसा से विरत १०१-१०३. अदान में समता का निर्देश १०४-१२०. आहार की अनासक्ति १०४. पचन-पाचन किसलिए? १०५. संग्रह करना है मूल मनोवृत्ति १०६. सन्निधि-सचय है संधि १०७-१०६. सन्निधि तथा संनिचित आहार है आमगंध १०९. अनगार क्रय-विक्रय में व्याप्त न हो ११०. आहार की अन्वेषणा और अपरिग्रह की संरक्षणा के लिए भिक्षु के ज्ञातव्य ग्यारह गुण ० चणि की 'अप्रतिज्ञ' शब्द की अर्थ-परम्परा १११. ग्रहण में राग-द्वेष का वर्जन ११२. अनगार किन वस्तुओं की याचना करे ? ११३. आहार की मात्रा का परिज्ञान ११४-११५. आहार के लाभ और अलाभ में समभाव • मद और शोक का स्वरूप ० चूर्णिकार के अनुसार शोक-निवृत्ति का आलम्बन ११६-११७. आहार का संग्रह और ममत्व न करने का निर्देश ११८. अध्यात्म तत्त्वदर्शी पदार्थों का परिभोग अन्यथा करे ० अध्यात्म-साधक-गृहस्थ के लिए निर्देश ११९-१२०. पदार्थ सम्बन्धी अपरिग्रह मार्ग का स्वरूप । • पश्यक की परिभाषा और उसका स्वरूप Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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