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आहारादिवस्तुजातम् इति सामालोच्य परिग्रहाद् अपष्वष्केत- अपसर्पयेत् पदार्थजाते मुच्छ ममत्वं वा न कुर्यात्।'
११८. अण्णा णं पासए परिहरेज्जा ।
सं० - अन्यथा पश्यकः परिधरेत ।
अध्यात्म तत्त्वदर्शी वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करे - जैसे अध्यात्म के तत्व को नहीं जानने वाला मनुष्य करता है, वैसे न करे ।
भाष्यम् ११८ अनगार: आत्मानं परमतत्त्वञ्च पश्यति, तेन स पश्यको भवति । तादृशः स आहारादि वस्तुजातानां अन्यथा परिभोगं कुर्यात् गृहस्थवत् परिग्रहबुद्धया तेषां परिभोगं न कुर्यात् एतद् वस्तु जातं धर्मोपकरणं आचार्यसत्कञ्च इति सम्प्रधार्य तस्य परिभोगं कुर्यात् न तस्मिन् मूच्छा ममत्वं वा कुर्यात् ।
आत्मानं से दूर रखे, पदार्थ के प्रति मूर्च्छा या ममत्व न करे ।
'अन्यथा परिभोग नियमः' अध्यात्म साधनायामुपस्थितस्य गृहस्थस्यापि अनुसरणीयो भवति । यथा अध्यात्म रहस्यमजानानो गृहस्थ पदार्थानां मूच्छतिरेकेण उप भोगं करोति तद् अध्यात्मरहस्यविद् गृहस्थः तथा न कुर्यात् । सति मूर्च्छातिरेके गाडकर्मणां बन्धो भवति । मूर्च्छतिनुत्वे कर्मणां बन्धोऽपि शिथिलो भवति । "
११९. एस मग्गे आरिएहि पवेइए।
सं० - एष मार्गः आयें प्रवेदितः ।
यह मार्ग तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित है ।
११९ एवं आहारादिपदार्थजातविषयकः अपरिग्रहमार्गः आर्यैः प्रवेदितः । अत्र आर्यपदेन साक्षाद् भगवतो महावीरस्य ग्रहणं, परम्परया अन्येषामपि तीर्थंकराणाम् ।
१२०. जहेत्थ कुसले गोवल पिज्जासि त्ति बेमि ।
सं० - यथात्र कुशलः नोपलिम्पेत् इति ब्रवीमि ।
जैसे कुशल पुरुष इस में लिप्त न हो, ऐसा मैं कहता हूं।
१. धर्मोपकरण के बिना जीवन का निर्वाह नहीं होता । इसलिए उसका ग्रहण किया जाता है, फिर भी मुनि का यह चितन बना रहना चाहिए कि नौका के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता। समुद्र का पार पाने के लिए नौका आवश्यक है, किन्तु समुद्रयात्री उसमें आसक्त नहीं होता, वैसे ही जीवन चलाने के लिए आवश्यक धर्मोपकरण में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए ।
२. वस्तु का अपरिभोग और परिभोग ये दो अवस्थाएं हैं। वस्तु का अपरिभोग एक निश्चित सीमा में ही हो सकता
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आचारांगभाष्यम
अनगार आत्मा और परमतत्त्व को देखता है, इसलिए वह
द्रष्टा होता है।
पश्वक ऐसा वह अनवार आहार आदि पदार्थों का परिभोग अन्य प्रकार से करे —— गृहस्थ की भांति परिग्रह की बुद्धि से उनका परिभोग न करे ये पदार्थ धर्मोपकरण हैं तथा आचार्य की निश्रा में हैं' - ऐसा सोचकर उनका परिभोग करे, उनमें न मूर्च्छा करे और न ममत्व रखे ।
में
अन्य प्रकार से परिभोग करने का यह नियम अध्यात्म-साधना उपस्थित गृहस्थ के लिए भी अनुसरणीय है । जैसे अध्यात्म के रहस्य का जानकार गृहस्थ पदार्थों का उपभोग मूर्च्छा के अतिरेक से करता है, उस प्रकार से अध्यात्म के रहस्य को जानने वाला गृहस्थ न करे । मूर्च्छा का अतिरेक होने पर गाढ कर्मों का बंध होता है । मूर्च्छा की अल्पता में कर्मों का बंध भी शिथिल होता है ।
आहार आदि पदार्थों से संबंधित अपरिग्रह का यह मार्ग आयो द्वारा प्रतिपादित है । यहां आर्यपद से साक्षात् भगवान् महावीर का ग्रहण किया है और परम्परा से अन्यान्य तीर्थकरों का भी ।
है जहां जीवन है, शरीर है, वहां वस्तु का उपभोग परि भोग करना ही होता है। एक तत्वदर्शी मनुष्य भी उसका उपभोग - परिभोग करता है और तत्त्व को नहीं जानने वाला भी। किन्तु इन दोनों के उद्देश्य, भावना और विधि में मौलिक अन्तर होता है
भावना
उद्देश्य विधि १. तरव को नहीं जानने वाला | पौद्गलिक सुख | आसक्त | असंयत २. तत्वदर्शी आत्म-विकास के अनासक्त संयत लिए शरीर धारण
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