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अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १११-११७ ० एत्तो एक्कण वि घासेणं ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामरसभोईति वत्तव्वं सिया ।'
इससे एक कवल भी कम आहार करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकामरसभोजी नहीं कहलाता ।
११४. लाभो त्ति ण मज्जेज्जा।
सं०-लाभ इति न मायेत् । आहार का लाभ होने पर मद न करे।
११५. अलाभो त्ति ण सोयए।
सं०---अलाभ इति न शोचेत । आहार का लाभ न होने पर शोक न करे। भाष्यम् ११४-११५-आहारस्य लाभे सति मदो न
आहार का लाभ होने पर अनगार मद न करे और उसका कर्तव्यः । तस्याऽलाभे च शोको न कर्तव्यः । लाभा- अलाभ होने पर शोक न करे । लाभ और अलाभ में वह समता रखे। लाभयोः समतामनुभवेत् । 'अहं पर्याप्तमाहारं लभे, 'मुझे पर्याप्त आहार मिलता है, दूसरों को नहीं मिलता'-यह मद का शेषा न लभन्ते'-एष मदस्य आकारः । 'अहं मंदभाग्यः स्वरूप है। 'मैं मंद-भाग्य हूं, मुझे पर्याप्त आहार नहीं मिलता'-यह पर्याप्तमाहारं न लभे'-इति शोकस्य आकारः। शोक- शोक का स्वरूप है। शोक की निवृत्ति के लिए चूणिकार ने एक निवृत्तये चूर्णिकारेण एकमालम्बनसूत्रं निर्दिष्टमस्ति- आलम्बन-सूत्र निर्दिष्ट किया है'लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते ।
'यदि आहार मिलता ही मिलता है तो बहुत अच्छी बात है। अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे देहस्य धारणा ॥२ यदि नहीं मिलता है तो भी अच्छी बात है। क्योंकि आहार के न
मिलने पर सहज ही तप की वृद्धि होती है और यदि मिलता है तो शारीर-धारण या प्राण-धारण सहज हो जाता है।'
११६. बहुं पि लधु ण णिहे।
सं०-बहु अपि लछवा न निदध्यात् । वस्तु का प्रचुर मात्रा में लाभ होने पर भी उसका संग्रह न करे।
भाष्यम् ११६ --अनगारः प्रचुरमात्रायां सुलभे प्रचुर मात्रा में आहार की प्राप्ति सुलभ होने पर भी अनगार आहारजाते तन्न निदध्यात्--न स्थापयितुमिच्छेत् । उसका संग्रह न करे, उसको एकत्रित कर न रखे । वस्त्र-पात्र आदि के वस्त्रपात्रादिविषयेऽपि एष एव नियमः ।
विषय में भी यही नियम है। ११७. परिग्गहाओ अप्पाणं अवसबकेज्ज।।
सं०--परिग्रहात् आत्मानं अपष्वष्केत । परिग्रह से अपने-आपको दूर रखे।
भाष्यम् ११७-आहारवस्त्रादीनां पदार्थानां प्राप्ता- आहार, वस्त्र आदि पदार्थों की प्राप्ति होने पर भी अनगार वपि अनगारः परिग्रहं न कुर्यात् । 'एतं आहारं अहं उनका परिग्रह न करे । 'यह आहार मैं स्वयं खाऊंगा, दूसरों को नहीं स्वयमेव परिभोक्ष्ये, अन्यस्मै न दास्यामि' एतादृशो दूंगा, ऐसा ममत्व भाव परिग्रह होता है । आहार आदि सारे पदार्थ ममत्वाभिप्रायः परिग्रहो भवति । आचार्यसत्कमिदं आचार्य की निश्रा--आश्रय में हैं, ऐसा सोचकर अनगार स्वयं को परिग्रह
१. भोजन की मात्रा का निश्चित माप नहीं किया जा सकता। उसका संबंध भूख से है। न सबकी भूख समान होती है और न सबकी भोजन की मात्रा, फिर भी आनुपातिक वृष्टि से भगवान ने भोजन की मात्रा बत्तीस कौर बतलाई और
उससे कुछ कम खाने का निर्देश दिया। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ८१ । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १२१:
....."लब्धे तु प्राणधारणम् ।
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