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अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र ११८-१२३
१२७ भाष्यम् १२०...अत्र मार्गपदेन अपरिग्रहमार्गो विव- प्रस्तुत प्रसंग में 'मार्ग' पद से अपरिग्रह का मार्ग विवक्षित है। क्षितोऽस्ति । केवलं पदार्थसंग्रह एव न परिग्रहः, किन्तु केवल पदार्थ का संग्रह ही परिग्रह नहीं है, किन्तु पदार्थों के प्रति होने पदार्थेषु जायमाना मूर्छाऽपि परिग्रहोऽस्ति । मूर्छायां वाली मूर्छा भी परिग्रह है। जब मूर्छा कृश हो जाती है तब व्यक्ति प्रतनुतां गतायां पुरुष: लाभे सति न माद्यति, अलाभे लाभ होने पर भी मद नहीं करता, अलाभ की स्थिति में शोक नहीं सति न शोचति, बहुलाभे सति न सन्निधि-सन्निचयं करता तथा बहुत लाभ होने पर सन्निधि-सन्निचय नहीं करता । वह करोति । स पश्यको भवति । तस्य सकलोऽपि व्यवहारो द्रष्टा होता है। उसका सारा व्यवहार भी मूर्छाग्रस्त व्यक्ति से भिन्न मूच्र्छावतः पुरुषात भिन्नो भवति । तेन निगमने प्रोक्तं- होता है। इसलिए उपसंहार में कहा गया-जैसे इस मार्ग में कुशल यथा अस्मिन् मार्गे कुशलोऽनगारः परिग्रहलेपेन आत्मानं अनगार परिग्रह के लेप से अपने-आपको लिप्त न करे, ऐसा मैं कहता नोपलिम्पेद् इति ब्रवीमि ।
१२१. कामा दुरतिक्कमा।
सं०—कामाः दुरतिक्रमाः । काम दुलंघ्य हैं।
भाष्यम् १२१-परिग्रहस्य मूलं कामः । स च परिग्रह का मूल है काम-कामना । वह दो प्रकार का हैद्विविधः१. इच्छाकामः-स्वर्णादिपदार्थप्राप्ते: कामना ।
१. इच्छाकाम-स्वर्ण आदि पदार्थों को प्राप्त करने की
कामना। २. मदनकामः-शब्दादीनामिन्द्रियविषयाणां कामना। २. मदनकाम-शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों की कामना ।
कामसंज्ञा सुचिरसंस्कारसमुद्भवा । तेन एते कामाः कामसंज्ञा चिरसंचित संस्कारों से उत्पन्न होती है, इसलिए इन दुरतिक्रमाः भवन्ति । कामानामतिक्रमणं प्रतिस्रोतो- कामनाओं का अतिक्रमण करना कष्टसाध्य होता है। कामनाओं का गमनमस्ति । इन्द्रियाणि च अनुस्रोतोवाहीनि सन्ति । अतिक्रमण करना प्रतिस्रोत में चलना है । इन्द्रियां अनुस्रोतगामिनी तेन कामानामतिक्रमणं कतं दुःशकमस्ति ।
हैं । इसलिए कामनाओं का अतिक्रमण करना दुःशक्य है।
१२२. जीवियं दुप्पडिवूहणं ।
सं०-जीवितं दुष्प्रतिबृंहणम् । जीवन को बढाया नहीं जा सकता-छिन्न आयुष्य को सांधा नहीं जा सकता।
भाष्यम् १२२---जीवितं स्वल्पम्, अनल्पाश्च कामाः। जीवन स्वल्प है, कामनाए अधिक हैं । इस छोटे से जीवन में स्वल्पे जीवने न तेषां पूर्ति: संभवति । कामाश्च यथा उनकी संपूर्ति संभव नहीं है । जैसे-जैसे कामनाओं की पूत्ति की जाती यथा सेव्यन्ते तथा तथा प्रवर्धन्ते, किन्तु तथा जीवितस्य है, वैसे-वैसे वे बढती जाती हैं। किन्तु उसी अनुपात में जीवन को उपबृंहणमस्ति दुष्करम् । कामानां दुरतिक्रमणे अयं बढाना दुष्कर है। कामनाओं के दुरतिक्रमण का यह पहला हेतु है। प्रथमो हेतुः ।
१२३. कामकामी खलु अयं पुरिसे।
सं०-कामकामी खलु अयं पुरुषः । यह पुरुष कामकामी है-मनोज्ञ शब्द और रूप की कामना करने वाला है।
भाष्यम् १२३-पुरुषः स्वभावत एव कामान् काम- पुरुष स्वभाव से ही कामभोगों की कामना करता है । 'काम' यते । कामश्च मौलिकी मनोवृत्तिरिति सा दुस्त्यजा। मौलिक मनोवृत्ति है, इसलिए उसको छोड़ना कठिन होता है। कामानां दुरतिक्रमणे अयं द्वितीयो हेतुः ।
कामनाओं के दुरतिक्रमण का यह दूसरा हेतु है।
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