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________________ २०८ आचारांगभाष्यम् सत्त्वाः-जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्त्व-जिसमें शुभ-अशुभ कर्मों की सत्ता है, वह सत्त्व है। सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया।' अत्र अहिंसासूत्रे पञ्च आदेशाः सन्ति प्रस्तुत अहिंसा-सूत्र में पांच आदेश हैं१. न हन्तव्याः-दण्डकसादिभिः । १. उनका हनन नहीं करना चाहिए-दंड, चाबुक आदि साधनों से। २. न आज्ञापयितव्याः -प्रसह्य अभियोगदानेन । २. उन पर शासन नहीं करना चाहिए-बलपूर्वक आदेश देकर। ३. न परिग्रहीतव्या:-मम भत्यदासदास्यादिरिति ३. उनका परिग्रह नहीं करना चाहिए ये मेरे भृत्य, दासममीकारेण । ___दासी हैं-इस प्रकार ममकार के द्वारा। ४. न परितापयितव्याः-शारीरमानसपीडो- ४. उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए-शारीरिक और त्पादनेन। मानसिक पीड़ा उत्पन्न कर। ५. नोवोतव्याः प्राणव्यपरोपणेन । ५. उनका उद्भवण नहीं करना चाहिए-प्राण-वियोजन के द्वारा। २. एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए। सं०-एष धर्मः शुद्धः नित्यः शाश्वतः समेत्य लोकं क्षेत्रज्ञः प्रवेदितः । यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है । आत्मज्ञ अहंतों ने लोक को जान कर इसका प्रतिपादन किया। भाष्यम् २-एष पञ्चादेशात्मकः अहिंसाधर्मः इस पांच आदेश वाले अहिंसा धर्म के चार लक्षण हैंचतुर्लक्षणो विद्यते१. शुद्धः-रागद्वेषरहितत्वात् । १. शुद्ध राग-द्वेष से रहित होने के कारण । २. नित्यः-अपरिवर्तनीयस्वरूपत्वात् । २. नित्य-अपरिवर्तनीय स्वरूप के कारण । ३. शाश्वतः-त्रिकालावस्थायित्वात् । ३. शाश्वत-त्रैकालिक होने के कारण । ४. क्षेत्र : प्रवेदितः आत्मज्ञैः जीवलोकं समेत्य ४. क्षेत्रज्ञ-प्रवेदित--आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा जीवलोक का -सम्यगवबुध्य निरूपितत्वात् । ___ सम्यग् अवबोध कर निरूपित होने के कारण । अनात्मज्ञप्रणीतः धर्मः रागद्वेषयुक्तत्वात् अशुद्धो. जो धर्म अनात्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्रणीत होता है वह रागभवति । स्वमतिविकल्पप्रकल्पितत्वात् परिवर्तितस्वरूपं द्वेष युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है। वह अपनी बुद्धि के विकल्पों नानाभेदयूक्तं भवति । अनेन इति व्याप्तिः फलिता से कल्पित होने के कारण परिवर्तनशील होता है, विभिन्न भेदों वाला भवति-यः आत्मज्ञैः प्रवेदितः धर्मः स तात्त्विकरूपेण होता है। इससे यह व्याप्ति (त्रैकालिक नियम) फलित होती है कि एकः । यो नास्ति तात्त्विकरूपेण एकःस नास्ति आत्मज्ञैः जो धर्म आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्ररूपित होता है वह तात्त्विकरूप से प्रवेदितः । एक होता है । जो तात्त्विकरूप से एक नहीं होता, वह आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्ररूपित नहीं होता । १. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।१५। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४ : कप्पदप्पादोहिं सज्झ अभियोगो आणा, परिग्गहो ममीकारो, तंजहा-मम दासो मम मिच्चो एवमादि, आणापरिग्गहाणं विसेसो, अपरिग्गहितोवि आणप्पति, परिग्गहो सामिकरणमेव । ३. वही, पृष्ठ १३४ : उद्दवणा मारणं । ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४ : खित्तं-आगासं, खित्तं जाणतीति खेत्तण्णो, तं तु आहारभूतं दव्वकालभावाणं, अमुत्तं च पवुच्चति, अमुत्ताणि खितं च जाणतो पाएण दव्वादीणि जाणइ, जो वा संसारि याणि दुक्खाणि जाणति सो खेत्तण्णो, पंडितो वा। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १६२ : खेबहः-जन्तुदुःख परिच्छेत्तृभिः। (ग) आप्टे, क्षेत्रज्ञः-The soul, the supreme soul, a witness, dextorus etc. (घ) द्रष्टव्यम्-आयारो, ३।१६ भाष्यम् । ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४ : समिच्चत्ति वा जाणित्तु वा एगट्ठा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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