SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चउत्थं अज्झयणं : सम्मत्त चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. से बेमि–जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सम्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति-सव्वे पाणा सवे भूता सम्वे जीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयन्वा । सं०-अथ ब्रवीमि-ये अतीताः, ये च प्रत्युत्पन्नाः, ये च आगमिष्याः अर्हन्तः भगवन्तः ते सर्वे एवं आचक्षते, एवं भाषन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति–सर्वे प्राणाः सर्वे भुताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः न हन्तव्याः, न आज्ञापयितव्याः, न परिगृहीतव्याः न परितापयितव्याः न उद्घोतव्याः । मैं कहता हूं-जो अहंत भगवान् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे-वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैं किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें वास नहीं बनाना चाहिए. उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए। भाष्यम् १-अथ ब्रवीमि-'सर्वे प्राणिनो न मैं कहता हूं-'किसी भी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिए' हन्तव्याः ' इति अहिंसासूत्रं केन प्रतिपादितमिति – इस अहिंसा-सूत्र का प्रतिपादन किसने किया, इस जिज्ञासा के जिज्ञासायां सूत्रकारेण उत्तरितम्-इदमर्हता प्रतिपादि- उत्तर में सूत्रकार कहते हैं-अर्हत् ने इस सूत्र का प्रतिपादन किया तम् । एतत् शाश्वतं सत्यमस्ति, अतः अतीतैरर्हद्भिरेवं है। यह शाश्वत सत्य है, इसलिए अतीत में हुए अर्हतों ने ऐसा प्रतिप्रत्यपादि, प्रत्युत्पन्ना अर्हन्तोप्येवं प्रतिपादयन्ति, पादन किया था, वर्तमान के अर्हत् भी ऐसा ही प्रतिपादन करते हैं भाविनोर्हन्तोपि एवं प्रतिपादयिष्यन्ति । अनेन सत्यस्य और भविष्य में होने वाले अर्हत् भी ऐसा ही प्रतिपादन करेंगे। इससे एकत्वं त्रैकालिकत्वं च सूचितं भवति ।' अर्हन्तस्तीर्थ- इस सत्य की एकरूपता और त्रैकालिकता सूचित होती है। अर्हत कराः । भगवन्तः त एव पूज्यत्वात् ज्ञानसम्पदासंपन्न- तीर्थंकर होते हैं। वे ही पूज्य होने के कारण अथवा ज्ञानसंपदा से त्वाद् वा। संपन्न होने के कारण भगवान् होते हैं। प्रस्तुत आलापक में जीववाची चार शब्द हैं--प्राण, भूत, जीव और सत्त्व । उनकी व्याख्या यह हैप्राणाः-जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ प्राण -जो आन, अपान, उच्छ्वास और निःश्वास से युक्त हैं वे प्राण वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। कहलाते हैं। भूताः-जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूत-जो थे, हैं और रहेंगे, वे भूत कहलाते हैं । भूए त्ति वत्तव्वं सिया। जीवाः---जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च जीव-जिससे जीव जीता है, जो जीवत्व और आयुष्य कर्म का कम्म उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। उपजीवी है, वह जीव है। १.कुमारिलभट्टेन प्रश्नः उपस्थापितः-यदि अस्ति सर्वशः तहि शास्त्रेषु किं नास्ति एकवाक्यता। यद्यस्ति तेषु परस्परं विप्रतिपत्तिः तदा कथं तत्प्रणेतारः सर्वज्ञाः भवेयुः? प्रस्तुतसूत्रे त्रिकालवतिनामहतां एकवाक्यतां प्रतिपाय इति प्रवशितम्-अर्हता प्रणीते शास्त्रे भिन्नवाक्यता विप्रतिपत्तिर्वा न स्यात् । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy