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आचारांगभाष्यम्
यावत् । एवं एते अवितीर्णा भवन्ति । केवलं वैराग्येणैव सकता। केवल वैराग्य से ही उनका पार पाया जा सकता है। कामों के ते तीर्णा भवन्ति । कामानामासेवनेन न ते कदापि तीर्णा आसेवन से उनका पार कभी भी नहीं पाया जा सकता, यह इसका भवन्तीति तात्पर्यम् ।
तात्पर्य है। ३५. अहेगे धम्म मादाय आयाणप्पभिई सुपणिहिए चरे ।
सं.-अर्थकः धर्ममादाय आदानप्रभृति सुप्रणिहितः चरति । कोई व्यक्ति मुनि-धर्म में दीक्षित हो, वस्त्र, पात्र आदि में अनासक्त होकर विचरण करता है।
भाष्यम ३५-पूर्वं पञ्च (३०-३४) प्रमादसूत्राणि पहले पांच (३० से ३४) प्रमाद सूत्रों का निरूपण हुआ है । अब भणितानि । अथातः अप्रमादसूत्राणि । एकः कश्चित् यहां से अप्रमाद सूत्रों का कथन है। कोई एक व्यक्ति वस्त्र, पात्र आदि आदानप्रभृति आदाय तत्र सुप्रणिहितः धर्म चरति । को ग्रहण कर उनमें अनासक्त होकर धर्म का आचरण करता है । सुशीलस्य धर्मचर्यायाः द्वे अवस्थे विद्यते-सचेलावस्था सुशील मुनि की धर्मचर्या की दो अवस्थाएं हैं-सचेल अवस्था और अचेलावस्था च । यः सचेलावस्थायां मुनिधर्ममाचरति अचेल अवस्था। जो सचेल अवस्था में मुनि-धर्म की आराधना करता तस्य चर्या सूत्रपञ्चके (३०-३४) निरूपिता। अचेला- है, उसकी चर्या का निरूपण पांच सूत्रों (३०-३४) में है। जो अचेल वस्थायां मुनिधर्ममाचरतश्चर्या चत्वारिंशसूत्रादारभ्य अवस्था में मुनि-धर्म की आराधना करता है, उसकी चर्या चालीसवें एकपञ्चाशसूत्रपर्यन्तं प्रतिपादिता समस्ति।
सूत्र से इक्यावनवें सूत्र पर्यन्त प्रतिपादित है। आदानम्-वस्त्रम् । प्रतिपदेन पात्रादीनां ग्रहणम् । आवान का अर्थ है- वस्त्र और 'प्रभृति' शब्द से पात्र आदि प्रणिधानं निर्मलता। यः वस्त्राद्युपकरणेषु अनासक्तो का ग्रहण किया गया है । प्रणिधान का अर्थ है-निर्मलता। जो वस्त्र भवति स उपकरणापेक्षया सुप्रणिहितःप्रोच्यते। उक्तञ्च आदि उपकरणों में अनासक्त रहता है, वह उपकरणों की अपेक्षा से स्थानाङ्गे
'सुप्रणिहित' कहलाता है । स्थानांग में कहा हैचउम्विहे सुप्पणिहाणे पण्णते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, सुप्रणिधान चार प्रकार का होता है—मन :सुप्रणिधान, वाक्वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे, उवगरणसुप्पणिहाणे। सुप्रणिधान, कायसुप्रणिधान और उपकरण सुप्रणिधान ।
१. विघ्न, द्वंद्व और अपूर्णता-ये काम के साथ जुड़े हुए हैं।
मनुष्य सुख की इच्छा से उनका सेवन करना चाहता है, पर सेवन-काल में अपहरण, रोग, मृत्यु आदि अनेक विघ्न उपस्थित हो जाते हैं। मनुष्य इष्ट विषय चाहता है, पर प्रत्येक इष्ट विषय के साथ अनिष्ट विषय अनचाहा आ जाता है । काम अपूर्ण हैं, इसलिए वे मनुष्य की तृप्ति को पूर्ण नहीं कर सकते । फलतः जैसे-जैसे उनका सेवन होता है, वैसे-वैसे अतृप्ति बढ़ती जाती है। इस क्रम से उनका
पार पाना असंभव हो जाता है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : जाणि प्पमादसुत्ताणि
भणिताणि तंजहा अहेगे तमच्चायो० एताणि विवज्जतेण पढिज्जति, अत्थआसवातो तं जहा-अहेगे त चाई सुसीले वस्थं पडिग्गहं अविउसज्ज अणुपुवेणं अहियासमाणो परीसहे दुरहियासओ कामे अममायमाणस्स, इदाणि वा मुहुत्ते वा अपरिमाणाए भेवे, एवं ता अंतराइएहि कम्मेहि वितिण्णा चेते, एयाओ आलंबणाओ कामे अणासेवमाणे 'अह एगे धम्ममादाय' एवं अप्पमादेणं पमादो अंतरिओ उवविट्ठी, भणियं च
'यस्त्वप्रमादेन तिरो प्रमादः, स्याद्वापि यत्तेन पुनः प्रमादः । विपर्ययेणापि पठति तत्र, सूत्राण्यधीगारवशाद विधिज्ञाः ॥' ३. (क) चूर्णी 'आदान' पदस्य व्याख्या एवं लभ्यते
'आदीयत इति आदाणं-नाणादि, अणुवसुप्पर्भाित वसुप्पभिति वा।'
(आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२) (ख) वृत्तौ 'आदान' पदेन सचेलावस्थायाः संकेतो लभ्यते
-आदाय गृहीत्वा वस्त्रपतग्रहादिधर्मोपकरणसमन्विता धर्मकरणेषु प्रणिहिताः परीषहसहिष्णवः सर्वज्ञोपदिष्टं धम्म चरेयुरिति ।
(आचारांग वृत्ति, पत्र २१९) (ग) तृतीयोद्देशकस्य प्रथमसूत्रे आदानं-वस्त्रादि
इत्यपि व्याख्यातमस्ति वृत्ती-'आदीयते इत्यादानं - कर्म आदीयते वाऽनेन कर्मेश्यादानं-कर्मोपादानं, तच्च धर्मोपकरणातिरिक्तं वक्ष्यमाणं
वस्त्रादि ।' (आचारांग वृत्ति, पत्र २२१) ४. अंगसुत्ताणि १, ठाणं ४।१०५ ।
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