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अ० २. लोकविचय, उ० ४. सूत्र ८१-११
८७. तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु ।
सं० - त्वमेव तत् शल्यमाहृत्य ।
उस शल्य का सृजन तूने ही किया है।
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भाष्यम् ८०– सायम् कर्म तद्विपाकश्च आशा छन्दोऽपि च शल्यमेव । ततः कर्म, ततश्च दुःखम् । एतत् शल्यं त्वमेव आहर्ता, अतस्त्वमेव तस्योद्धरणे प्रभुरसि ।
८८. जेण सिया तेण णो सिया ।
सं० येन स्यात् तेन नो स्यात् ।
जिससे होता है उससे नहीं भी होता ।
भाष्यम् - येन अर्थजातेन पदार्थेन वा भोगोपभोगः सुखोपलब्धिर्वा स्यात् तेन नापि स्यात्, विचित्र त्वात् कर्मपरिणतेः रोगार्त्तत्वाच्छरीरस्य, अन्येषामपि च तथाविधानां विघ्नानां सम्भवात् ।
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भाष्यम् ८९ इदं वस्तुसत्यमस्ति किन्तु ये जना मोहप्रावृता भवन्ति ते तदपि नावबुध्यन्ते मोहो रागद्वेषात्मकः । स च द्विविधो भवति - दर्शनमोहः चारित्रमोहश्च ।
८६. इणमेव णावबुज्भंति, जे जणा मोहपाउडा ।
सं० - इदमेव नावबुध्यन्ते ये जनाः मोहप्रावृताः ।
मोह से अतिशय आवृत मनुष्य इस पौद्गलिक सुख की अनेकान्तिकता को भी नहीं समझ पाते ।
६०. थीभि लोए पव्वहिए ।
सं०—स्त्रीभि: लोकः प्रव्यथितः ।
यह 'लोक स्त्रियों के द्वारा वशीकृत है।
भाष्यम् ९० --- आशया छन्दसा चाभिभूतः, कामसत्येन पीडित, भोगस्य सुखानुभूति प्रति अनैकान्तिकता च अनवबुध्यमानो लोकः स्त्रीभिः प्रव्यथितो भवति ।
११. ते भो वयंति एवाई आयतणाई ।
सं० -- ते भो ! वदन्ति - एतानि आयतनानि । हे शिष्य ! वे कहते हैं-ये स्त्रियां आयतन हैं ।
भाग्यम् ९१ - 'भो' इति शिष्यामन्त्रणार्थम् । ते स्त्रीभिः प्रव्यथिता जनाः वदन्ति एतानि आयतनानि सन्ति- एताः स्त्रियः भोगस्य स्थानानि विद्यन्ते ।
उत्तरायणाणि, ९।५३ : सल्लं कामा, बिसं कामा.......।
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शल्य का अर्थ है कर्म और उसका विपाक । आशा और छन्द भी शल्य ही हैं। उनसे कर्म और कर्म से दुःख उत्पन्न होता है । इस शल्य का सृजन तूने ही किया है, इसलिए तू ही उसे निकालने में समर्थ है ।
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जिस अर्थराशि से या पदार्थ से भोगों का उपभोग या सुख की उपलब्धि होती है, उनसे नहीं भी होती। इसका कारण है-कर्मपरिणति की विचित्रता, शरीर की रुग्णता और उसी प्रकार के अन्य विघ्नों की संभाव्यता ।
यह वस्तु सत्य है, किन्तु जो लोग मोह से सघन रूप में आवृत होते हैं वे इसे भी नहीं समझ पाते मोह राग-द्वेवात्मक होता है। वह दो प्रकार का होता है--दर्शनमोह और चारित्रमोह ।
जो व्यक्ति आशा और छन्द से पराभूत, कामशल्य से पीड़ित और भोगों की सुखानुभूति की अनेकांतिकता (अनिश्चितता) को नहीं समता वह स्त्रियों से प्रव्यथित होता है, उनका वशवर्ती बन जाता है ।
'भो'- यह शिष्य के सम्बोधन का वाचक है। वे स्त्रियों से प्रव्यथित ( वशीकृत) लोग कहते हैं ये आयतन है ये स्त्रियां भोग - सामग्री हैं । आयतन दो प्रकार का होता है- प्रशस्त और
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