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________________ ३१२ आचारांगभाष्यम बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक ३०. आतुरं लोयमायाए, चइत्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरम्मि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्म अहा तहा, अहेगे तमचाइ कुसीला। सं०-आतुरं लोकमादाय, त्यक्त्वा पूर्वसंयोग, हित्वा उपशम, उषित्वा ब्रह्मचर्य, वसुं वा अनुवसुं वा ज्ञात्वा धर्म यथा तथा अप्येके तमशक्नुवन्तः कुशीलाः। वियोग से आतुर लोक को जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम का अभ्यास कर, ब्रह्मचर्य में वास कर, पूर्ण या अपूर्ण धर्म को यथार्थ रूप में जान कर भी कुछेक कुशील मुनि चारित्र-धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते। भाष्यम् ३०-प्रथमोद्देशके स्वजनपरित्यागधुतं प्रस्तुत अध्ययन के पहले उद्देशक में स्वजन-परित्याग धुत की व्याख्यातम् । इदानीं काम्यपरित्यागधुतं व्याख्यायते। व्याख्या की गई है । अब यहां काम्य-परित्याग धुत की व्याख्या की जा स पराक्रममाणः स्ववियोगे आतुरं लोक-मातापित्रा- रही है । वह संयम में पराक्रमशील व्यक्ति अपने वियोग से आकुल-व्याकुल दिकं आदत्ते-ज्ञानेन गाति, गृहीत्वापि पूर्वसंयोगं माता-पिता आदि को-ये रागातुर होकर आक्रन्दन कर रहे हैं त्यजति, ततश्च उपशम-संयम' अभ्यस्यति' प्राप्नोति' ऐसा ज्ञान से जानता है, जानकर भी वह पूर्व संयोग को छोड़ देता है। वा। ब्रह्मचर्ये-चारित्रे गुरुकुलवासे च वसति । स उसके पश्चात् वह संयम का अभ्यास करता है अथवा उसे हस्तगत कर वसुं-वीतरागसंयम वा अनुवसुं-सरागसंयम वा धर्म लेता है । वह ब्रह्मचर्य-चारित्र में रमण करता है और गुरुकुलवास यथार्थरूपेण जानाति । अथैके कुशीलाः अल्पं वा में रहता है। वह वसु-वीतरागसंयम अथवा अनुवसु-सरागसंयम चिरं वा कालं तत्र उषित्वापि तं आराधयितुं न धर्म को यथार्थरूप में जानता है। फिर भी कुछेक कुशील मुनि शक्नुवन्ति ।' अल्पकाल अथवा चिरकाल तक संयम में रह कर भी उसकी आराधना करने में समर्थ नहीं होते। ३१. वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिज्जा। सं०-वस्त्रं प्रतिग्रहं कम्बलं पादप्रोञ्छनं व्युत्सृज्य । वे वस्त्र, पात्र, कम्बल और पावनोंछन को छोड़ देते हैं । भाष्यम् ३१-तेषु केचित् लिङ्गे--मुनिवेशे तिष्ठन्ति । उन में कुछ व्यक्ति मुनिवेश में रहते हैं। कुछ मुनिवेश को केचित लिङ्गमपि त्यजन्ति । वस्त्रं, प्रतिग्रह, कम्बलं. भी छोड़ देते हैं। कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल पादप्रोञ्छनं व्युत्सृज्य कश्चित् श्रावको भवति, कश्चित् का परित्याग कर श्रावक बन जाता है । कोई दर्शन-श्रावक, कोई दर्शनश्रावको भवति, कश्चिद् गृहस्थः लिङ्गी वा भवति। गृहवासी अथवा कोई अन्यलिंगी बन जाता है । प्रतिग्रहम्-पात्रं । पावप्रोञ्छनम्-रजोहरणम् । प्रतिग्रह का अर्थ है पात्र और पावोंछन का अर्थ है--- रजोहरण। ३२. अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परोसहे दुरहियासए। सं०-अनुपूर्वेण अनधिसह्यमानाः परीषहाः दुरधिसहाः । परीषहों को क्रमशः न सह सकने के कारण वे परीषह दुःसह हो जाते हैं। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०९ : उवसमणं उबसमो-संजमो, ५. वही, पृष्ठ २०९-२१० : अहवा संजमो दुहा भवति-से जो वा जत्य पिइं करेति से तस्स उवसमति । वसुमं वसति जेहिं गुणो सो वसु, अणु पच्छाभावे थोवे वा। २. वही, पृष्ठ २०९ : आदिअक्खरलोवा अहिच्चा। बीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । ३. आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : हित्वा-गत्वा । सरागोऽनुवसुः प्रोक्तः, स्थविरः धावकोऽयवा।। ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०९ : तं संजमो सत्तरसविहो, ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१० : अच्चाई णाम वसित्तु वा पालित्तु वा एगट्ठा, तं च बंभचेर वितितं से णामं अच्चाएमाणा, जं भणितं-असत्तिमंता । चारित्र। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : न शक्नुवन्ति । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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