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________________ नवमं अज्झयणं : उवहाणसुयं नौवां अध्ययन : उपधानश्रुत पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. अहासुयं वदिस्सामि, जहा से समणे भगवं उट्ठाय । संखाए तंसि हेमंते, अहणा पव्वइए रीयत्था । सं०-यथा श्रुतं वदिष्यामि, यथा स श्रमणो भगवानुत्थाय । संख्याय तस्मिन् हेमन्ते, अधुना प्रवजितः अरैषीत् । (सुधर्मा ने कहा-जम्बू !) श्रमण भगवान् महावीर की विहार-चर्या के विषय में मैंने जैसा सुना है, वैसा मैं तुम्हें बताऊंगा। भगवान् ने वस्तु-सत्य को जानकर घर से अभिनिष्क्रमण किया। वे हेमन्त ऋतु में दीक्षित होकर क्षत्रियकुण्डपुर से तत्काल विहार कर गए। भाष्यम् १–उपधानम्-तपः। भगवता वर्धमान- उपधान का अर्थ है-तप । भगवान् वर्धमान स्वामी ने जिस स्वामिना यत्तपोऽनुचीर्णं, तदत्र वर्ण्यते। भगवता न तप का आचरण किया, वह यहां बताया जा रहा है। भगवान् ने केवल केवलमुपदिष्टं, किन्तु स्वयं तपस्तप्तम् । एष महान् योगः तपस्या का उपदेश ही नहीं दिया, किन्तु स्वयं ने तपस्याएं की। यह दर्शनस्य आचारेण । आचारशून्यं दर्शनं दर्शनशून्यश्च दर्शन और आचार की महान् संयुति है । आचार-शून्य दर्शन अथवा आचारः न सार्थकतामेति, तेनैष योगः श्रेयान् । दर्शन-शून्य आचार-दोनों सार्थक नहीं होते। इसलिए दर्शन और आचार का यह योग श्रेयस्कर है। आर्यसुधर्मा जम्बूस्वामिनं वक्ति-भगवतस्तपोविषये आर्य सुधर्मा जम्बू स्वामी को कहते हैं-भगवान् महावीर के मया यथा श्रुतं तथा तव वदिष्यामि । यथा स श्रमणो तप के विषय में मैंने जैसा सुना है, वैसे ही मैं तुम्हें बताऊंगा। श्रमण भगवान तस्मिन हेमन्ते मृगशीर्षकृष्णाया दशम्या दिने भगवान् उस हेमन्त ऋतु की मृगसिर कृष्णा दशमी के दिन प्रजित प्रव्रजितोऽभूत् । प्रव्रज्यातः पूर्व तस्य उत्थानं संख्यानं च हुए । प्रव्रज्या से पूर्व उनमें उत्थान और संख्यान हुआ। उत्थान का संवत्तम । उत्थानमिति प्रव्रज्यार्थ पूर्णः जागरूकभावः अर्थ है-प्रव्रज्या के लिए पूर्ण जागरूकभाव का उदय और संख्यान समपद्यत । संख्यानमिति अस्ति आत्मा, अस्ति च का अर्थ है-आत्मा है, मोक्ष है, इसका पूर्ण बोध । भगवान् प्रव्रजित मोक्ष इत्यस्य संपरिज्ञानम् । स भगवान् प्रव्रज्यां प्रतिपद्य होकर तत्काल पाद-विहार कर गए। अधुना-तत्कालमेव पादविहारं कृतवान् । ' २. जो चेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥ सं०-नो चैवानेन वस्त्रेण, पिधास्यामि तस्मिन् हेमन्ते । स पारगः यावत्कथं, एवं खलु अनुधार्मिकं तस्य । दीक्षा के समय भगवान् एक शाटक थे कंधे पर एक वस्त्र धारण किए हुए थे। भगवान् ने संकल्प किया-'मैं हेमन्त ऋतु में इस वस्त्र से शरीर को आच्छादित नहीं करूंगा।' वे जीवन-पर्यन्त सर्दी के कष्ट को सहने का निश्चय कर चुके थे। यह उनकी अनुमिता-धर्मानुगामिता है। भाष्यम् २-यद् वस्त्रं स्कन्धे धृतं तद् अनुधार्मिकं भगवान् ने जो वस्त्र कंधे पर धारण किया था वह एकशाटकपरम्परानुकूलं वर्तते। एकशाटको मुनिः अनुधार्मिक-एकशाटक की परंपरा के अनुकूल था। एकशाटक एनामेव परम्परां निर्वहते। एतेन सहिष्णुतापि मुनि इसी परम्परा का निर्वहन करते हैं। इससे सहिष्णुता भी अनुधर्मान्तर्गता भवति, यथा सूत्रकृताङ्गे अनुधर्मान्तर्गत होती है । जैसे सूत्रकृतांग में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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