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________________ ४१० आचारांगभाष्यम भगवतः सम्मुखे सततं समाधिरेव समुपस्थितः । भगवान् के सम्मुख सतत समाधि ही रहती थी। भगवान् भगवता तस्यैव प्रेक्षा कृता अत एव सूत्रकारो वारं वारं ने उसी की प्रेक्षा की, इसलिए सूत्रकार ने बार-बार उसी प्रेक्षा तस्या निर्देशमकृत- 'पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ।' का निर्देश किया 'भगवान् समाधि में लीन रहते। उनके मन में प्रतिकार का कोई संकल्प भी नहीं उठता।' प्रस्तुताध्ययने भगवतः साधनाकालस्य अत्यन्तं प्रस्तुत अध्ययन में भगवान के साधनाकाल का अत्यंत स्वाभाविकं वर्णनमस्ति कृतम् । भगवतः दुःखक्षमत्वं स्वाभाविक वर्णन किया गया है। इसमें भगवान् की दुःख सहने की सहिष्णुत्वं च अत्रास्ति निदर्शितम्। मनुष्यतिर्यग्कृतानामुप- क्षमता और सहिष्णुता निदर्शित है तथा मानुषिक और तैरश्चिक सर्गाणामप्यस्ति निर्देशः । किन्तु देवैः कृतानामुपसर्गाणां उपसर्गों का भी उल्लेख है, किन्तु दैविक उपसर्गों का कोई उल्लेख नहीं नास्ति कश्चिदुल्लेखः । उत्तरवर्तिसाहित्ये तस्य महान् है। उत्तरवर्ती साहित्य में उसका बहुत विस्तार प्राप्त होता है । विस्तरो लभ्यते। शीतातपयोः सहनेऽपि क्षमता भगवान् की शीत और आतप सहने की क्षमता का भी इस अध्ययन में निदर्शितास्ति । निदर्शन है । भगवतो जीवनदर्शनस्य अध्ययनार्थ प्रस्तुताध्ययन- भगवान महावीर के जीवन-दर्शन के अध्ययन के लिए यह मत्यन्तं प्रामाणिक स्रोतो वर्तते इत्यस्माकं मतिः । अध्ययन अत्यंत प्रामाणिक स्रोत है, यह हमारा अभिमत है । ३. वही. ९।२।१३-१५ । १. आयारो, ९।२।११। २. वही, ९।२१७-१०। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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